Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 709
________________ 198] [जीवाजोवाभिगमसूत्र ___ अल्पबहुत्वद्वार-- सबसे थोड़े मनःपर्यायज्ञानी हैं, क्योंकि मनःपर्यायज्ञान केवल विशिष्ट चारित्रवालों को ही होता है। उनसे अवधिज्ञानी असंख्यातगुण हैं, क्योंकि देवों और नारकों को भी अवधिज्ञान होता है। उनसे आभिनिबोधिकज्ञानी और श्रुतज्ञानी दोनों विशेषाधिक हैं तथा ये स्वस्थान में परस्पर तुल्य हैं। उनसे केवलज्ञानी अनन्तगुण हैं, क्योंकि केवलज्ञानी सिद्ध अनन्त हैं / उनसे अज्ञानी अनन्त हैं, क्योंकि अज्ञानी वनस्पतिकायिक जीव सिद्धों से भी अनन्तगुण हैं। अथवा इन्द्रिय और अनिन्द्रिय की विवक्षा से सर्व जीव छह प्रकार के कहे गये हैं—एकेन्द्रिय यावत पंचेन्द्रिय और अनिन्द्रिय / अनिन्द्रिय सिद्ध हैं। इनकी काय स्थिति, अंतर और अल्पबहुत्व पूर्व में कहा जा चुका है। 251. अहवा छन्विहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा-पोरालियसरीरी वेउब्वियसरीरी आहारगसरीरी तेयगसरोरी कम्मगसरीरी असरीरी / ओरालियसरीरी णं भंते ! कालो केवचिरं होइ ? जहन्नेणं खुडागं भवग्गहणं दुसमयऊणं उक्कोसेणं असंखिज्ज कालं जाध अंगुलस्स असंखेज्जइभागं / वेउब्वियसरीरी जहन्नेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं तेत्तीस सागरोवमा अंतोमहत्तमभहियाई / आहारगसरीरी जहन्नेणं अंतो० उक्को अंतोमुहत्तं / तेयगसरीरी दुविहे पण्णत्त-प्रणाइए वा अपज्जवसिए, अणाइए वा सपज्जवसिए। एवं कम्मगसरीरीवि / प्रसरोरी साइए-अपज्जवसिए। अंतरं पोरालियसरीरस्स जहन्नेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं अंतोमुहत्तमभहियाई / वेउब्वियसरीरस्स जह० अंतो० उक्को० अणंसकालं वणस्सइकालो। आहारगस्स सरीरस्स जह० अंतो० उक्को० अणंतकालं जाव प्रवड्ड पोग्गलपरियटें देसूणं / तेयगसरीरस्स कम्मसरीरस्स य दोहवि गस्थि अंतरं। अप्पाबहुयं-सव्वत्थोवा पाहारगसरोरी, वेउध्वियसरीरी असंखेज्जगुणा, ओरालियसरीरी असंखेज्जगुणा, असरीरी अणंतगुणा, तेयाकम्मसरीरी दोवि तुल्ला अणंतगुणा / सेतं छव्यिहा सव्वजीवा पण्णत्ता। 251. अथवा सर्व जीव छह प्रकार के हैं-औदारिकशरीरी, वैक्रियशरीरी, आहारकशरीरी, तेजसशरीरी, कार्मणशरीरी और अशरीरी। भगवन् ! औदारिकशरीरी लगातार कितने समय तक रह सकता है ? गौतम ! जघन्य से दो समय कम क्षुल्लकभवग्रहण और उत्कर्ष से असंख्येयकाल तक / यह असंख्येयकाल अंगुल के असंख्यातवें भाग के प्राकाशप्रदेशों के अपहारकाल के तुल्य है। वैक्रियशरीरी जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागरोपम तक रह सकता है। आहारकशरीरी जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से भी अन्तर्मुहूर्त तक ही रह सकता है / तेजसशरीरी दो प्रकार के हैं-अनादि-अपर्यवसित और अनादि-सपर्यवसित / इसी तरह कार्मणशरीरी भी दो प्रकार के हैं। अशरीरी सादि-अपर्यवसित हैं। 1. 'तं संजयस्स सव्वप्पमायरहियस्स विविधरिद्धिमतो' इति वचनात् / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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