________________ 196] [ जीवाजीवाभिगमसूत्र अप्पाबहुयं-सव्वत्थोवा मणपज्जवणाणिणो, ओहिणाणिणो असंखेज्जगणा, आभिणिबोहियणाणिणो सुयणाणिणो विसेसाहिया सट्टाणे दोवि तुल्ला, केवलणाणिणो अणंतगुणा, अण्णाणिणो अणंतगुणा / अहवा छव्विहा सध्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा.-एगिदिया बेंदिया तेंदिया चरिदिया पंचेंदिया अणिदिया / संचिट्ठणा तहा हेट्ठा / ___अप्पाबयं-सव्वत्थोवा पंचेंदिया, चरिबिया विसेसाहिया, तेइंदिया विसेसाहिया, बेइंदिया विसेसाहिया, अणिदिया अणंतगुणा, एगिदिया अणंतगुणा / 250. जो ऐसा कहते हैं कि सब जीव छह प्रकार के हैं, उनका प्रतिपादन ऐसा है-सब जीव छह प्रकार के हैं, यथा--आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्यायज्ञानी, केवलज्ञानी और अज्ञानी। भगवन् ! आभिनिबोधिकज्ञानी, आभिनिबोधिकज्ञानी के रूप में कितने समय तक लगातार रह सकता है ? गौतम ! जघन्य से अन्तमुहर्त और उत्कृष्ट से साधिक छियासठ सागरोपम तक रह सकता है। इसी प्रकार श्रुतज्ञानी के लिये भी समझना चाहिए। अवधिज्ञानी उसी रूप में कितने समय तक लगातार रह सकता है ? गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कर्ष से साधिक छियासठ सागरोपम तक रह सकता है / भगवन् ! मनःपर्यायज्ञानी उसी रूप में कितने समय तक रह सकता है ? गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कर्ष से देशोन पूर्वकोटि तक रह सकता है / . भगवन् ! केवलज्ञानी उसी रूप में कितने समय तक रहता है ? गौतम ! केवलज्ञानी सादिअपर्यवसित है। __ अज्ञानी तीन तरह के हैं- 1. अनादि-अपर्यवसित, 2. अनादि-सपर्यवसित और 3. सादिसपर्यवसित / इनमें जो सादि-सपर्यवसित है, वह जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से अनन्तकाल तक जो देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त रूप है। आभिनिबोधिकज्ञानी का अन्तर जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कर्ष से अनन्तकाल, जो देशोन अपार्धपुदगलपरावर्त रूप है। इसी प्रकार श्रतज्ञानी. अवधिज्ञानी और मनःपर्यायज्ञानी का अन्तर कहना चाहिए / केवलज्ञानी का अन्तर नहीं है। ___सादि-सपर्यवसित अज्ञानी का अन्तर जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक छियासठ सागरोपम है। __ अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े मन:पर्यायज्ञानी हैं, उनसे अवधिज्ञानी असंख्येयगुण हैं, उनसे आभिनिबोधिकज्ञानी और श्रुतज्ञानो विशेषाधिक हैं और दोनों स्वस्थान में तुल्य हैं / उनसे केवलज्ञानी अनन्तगुण हैं और उनसे अज्ञानी अनन्तगुण हैं / / अथवा सर्व जीव छह प्रकार के हैं-एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय और अनिन्द्रिय / इनकी काय स्थिति और अन्तर पूर्वकथनानुसार कहना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org