Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 710
________________ सर्वजीवाभिगम] [199 औदारिकशरीर का अन्तर जघन्य एक समय और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागरोपम है / वैक्रियशरीर का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल है, जो वनस्पतिकालतुल्य है / आहारकशरीर का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल है, जो देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त रूप है / तेजस-कार्मण-शरीरी का अन्तर नहीं है / ___अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े आहारकशरीरी, वैक्रियशरीरी उनसे असंख्यातगुण, उनसे प्रौदारिकशरीरी असंख्यातगुण हैं, उनसे अशरीरी अनन्तगुण हैं और उनसे तेजस-कार्मणशरीरी अनन्तगुण हैं और ये स्वस्थान में दोनों तुल्य हैं। इस प्रकार षड्विध सर्वजीवप्रतिपत्ति पूर्ण हुई। विवेचन-शरीर-अशरीर को लेकर सर्व जीव छह प्रकार के हैं—औदारिकशरीरी, वैक्रियशरीरी, आहारकशरीरी, तेजसशरीरी, कार्मणशरीरी और अशरीरी। इनकी कायस्थिति, अन्तर और अल्पबहुत्व इस प्रकार है ___ कायस्थिति-औदारिकशरीर उस रूप में लगातार जघन्य से दो समय कम क्षुल्लकभव तक रह सकता है। विग्रहगति में आदि के दो समय में कार्मणशरीरी होने से दो समय कम कहा है। उत्कर्ष से असंख्येयकाल तक रह सकता है। इतने काल तक अविग्रह से उत्पाद सम्भव है। यह असंख्येयकाल अंगुल के असंख्यातवें भागवर्ती आकाश-प्रदेशों को प्रतिसमय एक-एक के मान से अपहार करने पर जितने समय में वे निर्लेप हो जायें, उतने काल के बराबर हैं। वैक्रियशरीरी जघन्य से एक समय तक उसी रूप में रहता है। विकुर्वणा के अनन्तर समय में ही किसी का मरण सम्भव है। उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागरोपम तक रहता है / कोई चारित्रसम्पन्न संयति वैक्रियशरीर करके अन्तर्मुहूर्त जीकर स्थितिक्षय से अविग्रह द्वारा अनुत्तरविमानों में उत्पन्न हो सकता है, इस अपेक्षा से जानना चाहिए। आहारकशरीरी जघन्य से और उत्कर्ष से भी अन्तर्मुहूर्त तक ही उस रूप में रह सकता है / तेजसशरीरी और कार्मणशरीरी दो-दो प्रकार के हैं-अनादि-अपर्यवसित (ये कभी मुक्त नहीं होगा) और अनादि-सपर्यवसित (मुक्तिगामी)। ये दोनों अनादि और अपर्यवसित होने से कालमर्यादा रहित हैं। अशरीरी सादि-अपर्यवसित हैं. अतः सदा उस रूप में रहते हैं। ___ अन्तरद्वार-औदारिकशरीरी का अन्तर जघन्य से एक समय है / वह दो समयवाली अपान्तराल गति में होता है, प्रथम समय में कार्मणशरीरी होने से। उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागरोपम है / यह उत्कृष्ट वैक्रियकाल है। वैक्रियशरीरी का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहुर्त है। एक बार वैक्रिय करने के बाद इतने व्यवधान पर दुबारा वैक्रिय किया जा सकता है। मानव और देवों में ऐसा होता है। उत्कर्ष से वनस्पतिकाल का अन्तर स्पष्ट ही है। आहारकशरीरी का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। एक बार करने के बाद इतने व्यवधान से पुनः किया जा सकता है। उत्कर्ष से अनन्तकाल, जो देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त रूप है। तेजसकार्मणशरीर का अन्तर नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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