________________ सर्वजीवाभिगम] [197 अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े पंचेन्द्रिय, उनसे चतुरिन्द्रिय विशेषाधिक, उनसे त्रीन्द्रिय विशेषाधिक, उनसे द्वीन्द्रिय विशेषाधिक, उनसे अनिन्द्रिय अनन्तगुण और उनसे एकेन्द्रिय अनन्त विवेचन--ज्ञानी और अज्ञानी को अपेक्षा से सर्व जीव के छह भेद इस प्रकार बताये हैं१. आभिनिबोधिक ज्ञानी (मतिज्ञानी), 2. श्रुतज्ञानी, 3. अवधिज्ञानी, 4. मनःपर्यायज्ञानी, 5. केवलज्ञानी, 6. अज्ञानी / इनकी संचिट्ठणा, अन्तर और अल्पबहुत्व इस सूत्र में वर्णित है / वह इस प्रकार है संचिद्रणा (कायस्थिति)—प्राभिनिबोधिकज्ञानी जघन्य से अन्तमुहर्त तक लगातार उस रूप में रह सकता है / क्योंकि जघन्य से सम्यक्त्वकाल इतना ही है। उत्कर्ष से साधिक छियासठ सागरोपम तक रह सकता है / यह विजयादि में दो बार जाने की अपेक्षा समझना चाहिये / श्रुतज्ञानी की काय स्थिति भी इतनी ही है, क्योंकि आभिनिबोधिकज्ञान और श्रुतज्ञान दोनों अविनाभूत हैं। कहा गया है कि जहां प्राभिनिबोधिकज्ञान है वहां श्रुतज्ञान है और जहां श्रुतज्ञान है वहां आभिनिबोधिकज्ञान है। ये दोनों अन्योन्य-अनुगत हैं।' अवधिज्ञानी की कास्थिति जघन्य से एक समय है / यह एकसमयता या तो अवधिज्ञान होने के अनन्तर समय में मरण हो जाने से अथवा प्रतिपात से मिथ्यात्व में जाने से ( विभंगपरिणत होने से ) जाननी चाहिए / उत्कर्ष से साधिक छियासठ सागरोपम को है, जो मतिज्ञानी की तरह जाननी चाहिए। मनःपर्यायज्ञानी की कायस्थिति जघन्य एक समय है, क्योंकि द्वितीय समय में मरण होने से प्रतिपात हो सकता है। उत्कर्ष से देशोन पूर्वकोटि है / क्योंकि चारित्रकाल उत्कर्ष से भी इतना ही है / केवलज्ञानी सादि-अपर्यवसित है / अतः उस भाव का कभी त्याग नहीं होता। अज्ञानी तीन प्रकार के हैं अनादि-अपर्यवसित, अनादि-सपर्यवसित और सादि-सपर्यवसित / इनमें जो सादि-सपर्यवसित है, उसकी कायस्थिति जघन्य से अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि उसके बाद कोई सम्यक्त्व पाकर पुनः ज्ञानी हो सकता है / उत्कर्ष से अनन्तकाल है जो देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त रूप है, क्योंकि ज्ञानित्व से परिभ्रष्ट होने के बाद इतने काल के अन्तर से अवश्य पुनः ज्ञानी बनता ही है / अन्तरद्वार--आभिनिबोधिक ज्ञानी का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। परिभ्रष्ट होने के इतने काल के बाद पूनः वह प्राभिनिबोधिकज्ञानी हो सकता है। उत्कर्ष से अन्तर देशोन अपार्धपूद परावर्त काल है / इसी प्रकार श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी और मनःपर्यायज्ञानी का अन्तर भी जानना चाहिए / केवलज्ञानी का अन्तर नहीं है, क्योंकि वह सादि-अपर्यवसित है। अनादि-अपयंवसित प्रज्ञानी का तथा अनादि-सपर्यवसित अज्ञानी का अन्तर नहीं है, क्योंकि अपर्यवसित और अनादि होने से / सादि-सपर्यवसित का जघन्य अन्तर अंतर्मुहूर्त है / क्योंकि इतने काल में वह पुनः ज्ञानी से अज्ञानी हो सकता है / उत्कर्ष से अन्तर साधिक छियासठ सागरोपम है। ना 1. 'जत्थ आभिणिबोहियनाणं तत्थ सुयणाणं, जत्थ सुयणाणं तत्थ आभिणिबहियनाणं, दोवि एयाई अण्णोपण मणुगयाई' इति वचनात् / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org