Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 705
________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र 248. जो ऐसा कहते हैं कि पांच प्रकार के सर्व जीव हैं, उनके अनुसार वे पांच भेद इस प्रकार हैं--क्रोधकषायी, मानकषायी, मायाकषायी, लोभकषायी और अकषायी। क्रोधकषायी, मानकषायी, मायाकषायी जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से भी अन्तर्मुहूर्त तक उस रूप में रहते हैं। लोभकषायी जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक उस रूप में रह सकता है। अकषायी दो प्रकार के हैं (जैसा कि पहले कहा है) सादि-अपर्यवसिन और सादि-सपर्यवसित / सादि-सपर्यवसित जघन्य एक समय, उत्कर्ष से अन्तमुहूर्त तक उस रूप में रह सकता है / क्रोधकषायी, मानकषायी और मायाकषायी का अन्तर जघन्य एक समय और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त है / लोभकषायी का अंतर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से अंतर्मुहूर्त है / अकषायी के विषय में जैसा पहले कहा गया है, वैसा ही समझना। अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े अकषायी हैं, उनसे मानकषायी अनन्तगुण हैं, उनसे क्रोधकषायी, मायाकषायी और लोभकषायी क्रमशः विशेषाधिक जानना चाहिए। विवेचन-कषाय-अकषाय की विवक्षा से सर्व जीवों के पांच प्रकार इस तरह हैं---क्रोधकषायी, मानकषायी, मायाकषायी, लोभकषायी और अकषायी / इनकी कायस्थिति, अन्तर और अल्पबहुत्व इस प्रकार है कायस्थिति-क्रोधकषायी, मानकषायी और मायाकषायो की काय स्थिति जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से भी अन्तर्मुहूर्त है। क्योंकि कहा गया है कि क्रोधादि का उपयोगकाल अन्तर्मुहूर्त है।' लोभकषायी जघन्य से एक समय तक उस रूप में रहता है / यह कथन उपशमश्रेणी से गिरते समय लोभकषाय के उदय होने के प्रथम समय के अनन्तर समय में मरण हो जाने की अपेक्षा से है / मरण के समय किसी के क्रोधादि का उदय सम्भव है। क्रम से गिरना मरणाभाव की स्थिति में होता है, मरण में नहीं / उत्कर्ष से अन्तमुहूर्त की कायस्थिति है / ___ अकषायी दो प्रकार के हैं- सादि-अपर्यवसित (केवली) और सादि-सपर्यवसित (उपशान्तकषाय) / सादि-सपर्यवसित अकषायी की कायस्थिति जघन्य से एक समय है, द्वितीय समय में मरण होने से क्रोधादि का उदय होने से सकषायत्व की प्राप्ति हो सकती है। उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि उपशान्तमोहगुणस्थान का काल इतना ही है / अन्य प्राचार्यों का कथन है कि जघन्य से भी अन्तर्मुहूर्त ही कहना चाहिए, क्योंकि ऐसा वृद्धप्रवाद है कि लोभोपशम के लिए प्रवृत्त का अन्तर्मुहूर्त से पहले मरण नहीं होता / यह कथन सूत्रकार के अभिप्राय से भी युक्त लगता है, क्योंकि उन्होंने आगे चलकर लोभकषायी को कायस्थिति जघन्य और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त कही है। अन्तरद्वार-क्रोधकषायी का अन्तर जघन्य एक समय है, क्योंकि उपशमसमय के अनन्तर मरण होने से पुन: किसी के उसका उदय हो सकता है, उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त है। इसी तरह मानकषायी और मायाकषायी का भी अन्तर कहना चाहिए। लोभकषायी का जघन्य से भी और उत्कर्ष से भी अन्तर्मुहूर्त का अन्तर है, केवल जघन्य से उत्कृष्ट बृहत्तर है। 1. क्रोधायुपयोगकालो अन्तर्मुहूर्त मितिवचनात् / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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