________________ तृतीय प्रतिपत्ति: देवद्वीपादि में विशेषता [27 य-जोयण-जोयणसय-जोयणसहस्साईगंता जोयणसहस्सं उव्वेहपरिवुड्डीए। लवणे णं भंते ! समुद्दे केवइयं उस्सेह-परिवुड्डीए पण्णत्ते ? गोयमा ! लवणस्स णं समुदस्स उभओ पासि पंचाणउइं पदेसे गंता सोलसपएसे उस्सेहपरिवड्डीए पण्णत्ते। गोयमा ! लव गस्त णं समुदस्स एएणेव कमेगं जाव पंचाणउई-पंचाणउई जोयणसहस्साई गंता सोलसजोयण उत्सेह-परिवुड्डीए पण्णत्ते। 170. हे भगवन् ! लवणसमुद्र की गहराई की वृद्धि किस क्रम से है अर्थात् कितनी दूर जाने पर कितनी गहराई की वृद्धि होती है ? गौतम ! लवणसमुद्र के दोनों तरफ (जम्बूद्वीपवेदिकान्त से और लवणसमुद्रवेदिकान्त से) पंचानव-पंचानवे प्रदेश (यहां प्रदेश से प्रयोजन त्रसरेणु है) जाने पर एक प्रदेश की उद्वेध-वृद्धि (गहराई में वृद्धि) होती है, 95-95 बालाग्र जाने पर एक बालाग्र उद्वेध-वृद्धि होती है, 95-95 लिक्खा जाने पर एक लिक्खा की उद्वेध-वृद्धि होती है, 95-95 यवमध्य जाने पर एक यवमध्य की उद्वेध-वृद्धि होती है, इसी तरह 95-95 अंगुल, वितस्ति (बेत), रत्नि (हाथ), कुक्षि, धनुष, कोस, योजन, सौ योजन, हजार योजन जाने पर एक-एक अंगुल यावत् एक हजार योजन की उद्वेध-वृद्धि होती है। हे भगवन् ! लवणसमुद्र की उत्सेध-वृद्धि (ऊंचाई में वृद्धि) किस क्रम से होती है अर्थात् कितनी दूर जाने पर कितनी ऊंचाई में वृद्धि होती है ? हे गौतम ! लवणसमुद्र के दोनों तरफ 95-95 प्रदेश जाने पर सोलह प्रदेशप्रमाण उत्सेधवृद्धि होती है। हे गौतम ! इस क्रम से यावत् 95-95 हजार योजन जाने पर सोलह हजार योजन की उत्सेध-वृद्धि होती है। विवेचन-लवणसमुद्र के जम्बूद्वीप वेदिकान्त के किनारे से और लवणसमुद्र वेदिकान्त के किनारे से दोनों तरफ 95-95 प्रदेश (त्रसरेणु) जाने पर एक प्रदेश की गहराई में वृद्धि होती है / 95-95 बालाग्न जाने पर एक-एक बालाग्र की गहराई में वृद्धि होती है। इसी प्रकार लिक्षा-यवमध्यअंगुल-वितस्ति-रस्नि-कुक्षि-धनुष गव्यूत (कोस), योजन, सौ योजन, हजार योजन आदि का भी कथन करना चाहिए / अर्थात् 95-95 लिक्षाप्रमाण आगे जाने पर एक लिक्षाप्रमाण गहराई में वृद्धि होती है यावत् 95 हजार योजन जाने पर एक हजार योजन की गहराई में वृद्धि होती है। 95 हजार योजन जाने पर जब एक हजार योजन की उत्सेधवृद्धि है तो त्रैराशिक सिद्धान्त से 95 योजन पर कितनी वृद्धि होगी, यह जानने के लिए 95000/1000/95 इन तीन राशियों की स्थापना करनी चाहिए। आदि और मध्य की राशि के तीन-तीन शून्य ('शून्यं शून्येन पातयेत्' के अनुसार) हटा देने चाहिए तो 95/1/95 यह राशि रहती है। मध्यराशि एक का अन्त्यराशि 95 से गुणा करने पर 95 गुणनफल आता है, इसमें प्रथम राशि 95 का भाग देने पर एक भागफल पाता है। अर्थात् एक योजन की वृद्धि होती है, यही बात इन गाथाओं में कही है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org