Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 685
________________ 174) [जीवाजीवाभिगमसूत्र भंते ! प्रभाषक, प्रभाषक रूप में कितने समय रहता है ? गौतम ! प्रभाषक दो प्रकार पर्यवसित और सादि-सपर्यवसित / इनमें जो सादि-सपर्यवसित प्रभाषक हैं, वह जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट में अनन्त काल तक अर्थात् अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणीकाल तक अर्थात् बनस्पतिकाल तक / भगवन् ! भाषक का अन्तर कितना है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से अनन्तकाल अर्थात् वनस्पतिकाल / सादि-अपर्यवसित प्रभाषक का अन्तर नहीं हैं। सादि-सपर्यवसित का अन्तर जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है / अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े भाषक हैं, अभाषक उनसे अनन्तगुण हैं। अथवा सब जीव दो प्रकार के हैं--सशरीरी और अशरीरी। अशरीरी की संचिगुणा आदि सिद्धों की तरह तथा सशरीरी की प्रसिद्धों की तरह कहना चाहिए यावत् अशरीरी थोड़े हैं और सशरीरी अनन्तगुण हैं। विवेचन–प्रस्तुत सूत्र में भाषक और प्रभाषक की अपेक्षा से सब जीवों के दो भेद कहे गये हैं / जो बोल रहा है वह भाषक है और अन्य प्रभाषक हैं।' भाषक, भाषक के रूप में जघन्य एक समय रहता है। भाषा द्रव्य के ग्रहण समय में ही मरण हो जाने से या अन्य किसी कारण से भाषा-व्यापार से उपरत हो जाने से एक समय कहा गया है। उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त तक रहता है। इतने काल तक ही भाषा द्रव्य का निरन्तर ग्रहण और निसर्ग होता है / इसके बाद तथाविध जीवस्वभाव से वह अवश्य प्रभाषक हो जाता है / प्रभाषक दो प्रकार के हैं-सादि-अपर्यवसित और सादि-सपर्यवसित / सादि-अपर्यवसित सिद्ध हैं और सादि-सपर्यवसित पृथ्वीकाय आदि हैं। जो सादि-सपर्यवसित हैं, वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक अभाषक रहता है, इसके बाद पुनः भाषक हो जाता है। अथवा पृथ्वी आदि भव की जघन्य स्थिति इतने ही काल की है / उत्कर्ष से प्रभाषक, अभाषक रूप में वनस्पतिकाल पर्यन्त रहता है। वह वनस्पतिकाल अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी रूप है तथा क्षेत्रमार्गणा से अनन्त लोकाकाश के प्रदेशों का प्रतिसमय एक-एक के मान से अपहार करने पर उनके निर्लेप होने में जितना काल लगता है, उतना काल है; यह काल असंख्येय पुद्गलपरार्वत रूप है / इन पुद्गलपरावतों का प्रमाण ग्रावलिका के असंख्येयभागवर्ती समयों के बराबर है। वनस्पति में इतने काल तक अभाषक रूप में रह सकता है। अन्तरद्वार-भाषक का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त है और उत्कर्ष से अनन्तकाल-वनस्पतिकाल है। प्रभाषक रहने का जो काल है, वही भाषक का अन्तर है। सादि-अपर्यवसित अभाषक का अन्तर नहीं है। क्योंकि वह अपर्यवसित है / सादि-सपर्य वसित का अन्तर जघन्य एक समय और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि भाषक का काल ही प्रभाषक का अन्तर है / भाषक का काल जघन्य एक समय और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त ही है / अल्पबहुत्वसूत्र स्पष्ट ही है। 1. भाषमाणा भाषका इतरेऽभाषकाः। -वृत्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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