Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

Previous | Next

Page 695
________________ 184] [जीवाजीवाभिगमसूत्र 242. अहवा सम्बजीया तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-भवसिद्धिया प्रभवसिद्धिया, नोभवसिद्धिया-नोअभवसिद्धिया। प्रणाइया सपज्जवसिया भवसिद्धिया, अणाइया अपज्जवसिया प्रभवसिद्धिया, साइयअपज्जवसिया नोभवसिद्धिया-नोअभवसिद्धिया / तिण्हपि नत्थि अंतरं / अप्पाबहयं-सव्वत्थोवा अभवसिद्धिया, गोभवसिद्धिया-णोअभवसिद्धिया अणंतगुणा, भवसिद्धिया अणंतगुणा। 242. अथवा सर्व जीव तीन प्रकार के हैं-भवसिद्धिक, अभवसिद्धिक और नोभवसिद्धिकनोग्रभवसिद्धिक। __ भवसिद्धिक जीव अनादि-सपर्यवसित हैं / अभवसिद्धिक अनादि अपर्यवसित हैं और उभयप्रतिषेधरूप सिद्ध जीव सादि-अपर्यवासित हैं। अत: तीनों का अन्तर नहीं है। अल्पवहुत्व में सबसे थोड़े अभवसिद्धिक हैं, उभयप्रतिषेधरूप सिद्ध उनसे अनन्तगुण हैं और भवसिद्धिक उनसे अनन्तगुण हैं। विवेचन- भव्य-अभव्य को लेकर सर्वजीवों का त्रैविध्य यहां बताया है। जिनकी सिद्धि होने वाली है वे भव्य हैं, जिनकी सिद्धि कभी नहीं होगी, वे अभव्य हैं और जो भव्यत्व और अभव्यत्व के विशेषण से रहित हैं, वे सिद्धजीव नोभव्य-नोअभव्य है। भवसिद्धिक जीव अनादि-सपर्यवसित हैं, अन्यथा वे भवसिद्धिक नहीं हो सकते / प्रभवसिद्धिक अनादि-अपर्यवसित हैं, अन्यथा वे अभवसिद्धिक नहीं हो सकते / नोभवसिद्धिक-नोप्रभवसिद्धिक सादि-अपर्यवसित हैं, क्योंकि सिद्धों का प्रतिपात नहीं होता। अतएव इनकी अवधि न होने से कायस्थिति सम्बन्धी प्रश्न नहीं है तथा इन तीनों का अन्तर भी नहीं घटता है, क्योंकि भवसिद्धिकत्व जाने पर पुन: भवसिद्धिकत्व असंभव है / अभवसिद्धिक का भी अन्तर नहीं है, क्योंकि वह अपर्यवसित होने से कभी नहीं छूटता / सिद्ध भी सादि-अपर्यवसित होने से अन्तर नहीं है। अल्पबहुत्वद्वार में सबसे थोड़े अभव्य हैं, क्योंकि वे जघन्य युक्तानन्तक के तुल्य है। उभयप्रतिषेधरूप सिद्ध उनसे अनन्तगुण हैं, क्योंकि अभव्यों से सिद्ध अनन्तगुण हैं और उनसे भवसिद्धिक अनन्तगुण हैं, क्योंकि भव्य जीव सिद्धों से भी अनन्तगुण हैं। 243. अहवा तिविहा सध्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा-- तसा, थावरा, नोतसा-नोथावरा। तसे गं भंते ! कालमो केचिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं दो सागरोवमसहस्साइं साइरेगाई / थावरस्स संचिटणा वणस्सइकालो / णोतसा-नोयावरा साइ. अपज्जवसिया। सस्स अंतरं वणस्सइकालो / थावरस्स अंतरं दो सागरोवमसहस्साइं साइरेगाइं / णोतसथावरस्स पत्थि अंतरं / अप्पाबहयं सम्वत्थोवा तसा, नोतसा-नोथावरा अणंतगुणा, थावरा अणंतगुणा। से तं तिविधा सब्दजीवा पण्णत्ता / 243. अथवा सर्व जीव तीन प्रकार के हैं-त्रस, स्थावर और नोत्रस-नोस्थावर / भगवन् ! स, त्रस के रूप में कितने काल तक रहता है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 693 694 695 696 697 698 699 700 701 702 703 704 705 706 707 708 709 710 711 712 713 714 715 716 717 718 719 720 721 722 723 724 725 726 727 728 729 730 731 732 733 734 735 736