Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 694
________________ सर्व जीवाभिगम] [183 अप्पाबहुयं-सव्वस्थोवा सपणी, नोसण्णी-नोअसण्णी अणंतगणा, असण्णी अणंतगणा। 241. अथवा सर्व जीव तीन प्रकार के हैं--संजी, असंजी, नोसंजी-तोगसंज्ञी। भगवन् ! संज्ञी, संज्ञी रूप में कितने समय तक रहता है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से सागरोपमशतपृथक्त्व से कुछ अधिक समय तक रहता है / असंज्ञो जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल / नोसंजी-नोअसंज्ञी सादि-अपर्यवसित है, अतः सदाकाल रहता है। संज्ञी का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है / असंज्ञी का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक सागरोपमशतपृथक्त्व है / नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी का अन्तर नहीं है। अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े संज्ञी हैं, उनसे नोसंजी-नोप्रसंज्ञी अनन्तगुण हैं और उनसे असंज्ञी अनन्तगुण हैं। विवेचन-संज्ञी, असंज्ञी को विवक्षा से जीवों का वैविध्य इस सूत्र में बताकर उनकी संचिट्ठणा, अन्तर और अल्पबहुत्व का कथन किया गया है / कायस्थिति (संचिटणा)-संज्ञी जघन्य से अन्तर्मुहूर्त तक उसी रूप में रह सकता है। इसके बाद पुनः कोई असंजियों में जा सकता है। उत्कर्ष से साधिक दो सौ सागरोपम से नौ सौ सागरोपम तक रह सकता है / इसके बाद संसारी जीव अवश्य प्रसंज्ञी में उत्पन्न होता है। असंज्ञी की कायस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त है। इसके बाद वह पुनः संज्ञियों में उत्पन्न हो सकता है। उत्कर्ष से अनन्तकाल तक असंज्ञियों में रह सकता है। यह अनन्तकाल वनस्पतिकाल है। कालमार्गणा से अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी रूप है तथा क्षेत्रमार्गणा से अनन्तलोक तथा असंख्येय पुद्गलपरावर्त रूप है / उन पुद्गलपरावर्तों का प्रमाण पावलिका के असंख्येयभागवर्ती समयों के बराबर है। नोसंजी-नोअसंज्ञी जीव सिद्ध हैं। वे सादि-अपर्यवसित हैं / अपर्यवसित होने से सदा उसी रूप में रहते हैं। अन्तरद्वार-संज्ञी का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त है और उत्कर्ष से अनन्तकाल है, जो वनस्पतिकाल तुल्य है / असंज्ञी का अवस्थानकाल जघन्य और उत्कर्ष से इतना ही है। ___ असंज्ञी का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से साधिक सागरोपमशतपृथक्त्व है, क्योंकि संज्ञी का अवस्थानकाल जघन्य-उत्कर्ष से इतना ही है / ___ नोसंजी-नोअसंज्ञी का अन्तर नहीं है, क्योंकि वे सादि-अपर्यवसित हैं। अपर्यवसित होने से अन्तर नहीं होता। अल्पबहुत्वद्वार-सबसे थोड़े संज्ञी हैं, क्योंकि देव, नारक और गर्भव्युत्क्रान्तिक तिर्यंच और मनुष्य ही संज्ञी हैं / उनसे नोसंज्ञी-नोप्रसंज्ञी अनन्तगुण हैं, क्योंकि वनस्पति को छोड़कर शेष जीवों से सिद्ध अनन्तगुण हैं, उनसे असंज्ञी अनन्तगुण हैं, क्योंकि वनस्पतिजीव सिद्धों से अनन्तगुण हैं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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