________________ 186] [जीवाजीवाभिगमसूत्र पहले भाषक के विषय में कहा गया है। विशिष्ट मनोयोग्य पुद्गल-ग्रहण की अपेक्षा यह समझना चाहिए। उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त तक मनोयोगी रह सकता है / तथारूप जीवस्वभाव से इसके बाद वह नियम से उपरत हो जाता है / वचनयोगी से यहां मनोयोगरहित केवल वाग्योगवान द्वीन्द्रियादि अभिप्रेत हैं / वे जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त तक रह सकते हैं। यह भी विशिष्ट वाग्द्रव्यग्रहण की अपेक्षा से ही समझना चाहिए। काययोगी से यहां तात्पर्य वाग्योग-मनोयोग से विकल एकेन्द्रियादि ही अभिप्रेत हैं। वे जघन्य से अन्तर्मुहूर्त उसी रूप में रहते हैं / द्वीन्द्रियादि से निकल कर पृथ्वी आदि में अन्तर्मुहूर्त रहकर फिर द्वीन्द्रियों में गमन हो सकता है। उत्कर्ष से वनस्पतिकाल तक उस रूप में रहा जा सकता है / अयोगी सिद्ध हैं / वे सादि-अपर्यवसित हैं, अतः वे सदा उसी रूप में रहते हैं / अन्तरद्वार—मनोयोगी का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त है। इसके बाद पुनः विशिष्ट मनोयोग्य पुद्गलों का ग्रहण संभव है / उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है। इतने काल तक वनस्पति में रहकर पुनः मनोयोगियों में प्रागमन संभव है। इसी तरह वाग्योगो का जघन्य और उत्कर्ष अन्तर भी जान लेना चाहिए। काययोगी का जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अंतर अन्तर्मुहूर्त कहा है। यह कथन औदारिककाययोग की अपेक्षा से कहा गया है। क्योंकि दो समय वाली अपान्तरालगति में एक समय का अन्तर है। उत्कर्ष से अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है / यह कथन परिपूर्ण औदारिकशरीरपर्याप्ति की परिसमाप्ति को अपेक्षा से है। वहां विग्रह समय लेकर औदारिकशरीरपर्याप्ति की समाप्ति तक अन्तर्मुहूर्त का अन्तर है / अतः उत्कर्ष से अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा गया है। वृत्तिकार ने इस कथन के समर्थन में चूर्णिकार के कथन को उद्धृत किया है / साथ ही वृत्तिकार ने कहा है कि ये सूत्र विचित्र अभिप्राय से कहे गये होने से दुर्लक्ष्य हैं, अतएव सम्यक् सम्प्रदाय से इन्हें समझा जाना चाहिए / वह सम्यक् सम्प्रदाय इसी रूप में है, अतएव वह युक्तिसंगत है / सूत्राभिप्राय को समझे बिना अनुपपत्ति की उद्भावना नहीं करनी चाहिए / केवल सूत्रों को संगति करने में यत्न करना चाहिए।' अल्पबहुत्वद्वार--सबसे थोड़े मनोयोगी हैं, क्योंकि देव, नारक, गर्भज तिर्यक् पंचेन्द्रिय और मनुष्य ही मनोयोगी हैं / उनसे वचनयोगी असंख्येयगुण हैं, क्योंकि द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय वाग्योगी हैं। उनसे अयोगी अनन्तगुण हैं, क्योंकि सिद्ध अनन्त हैं। उनसे काययोगी अनन्तगुण हैं, क्योंकि सिद्धों से वनस्पति जीव अनन्तगुण हैं। 245. अहवा चउम्विहा सव्वजीवा पण्णता, तं जहा–इथिवेयगा पुरिसवेयगा नपुंसकवेयगा अबेयगा। इथिवेयगा गं भंते ! इथिवेयएत्ति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा! (एगेण आएसेणं०) 1. न चैतत् स्वमनीषिका विजम्भितं, यत प्राह चणिकृत-"कायजोगिस्स जह एक्कं समयं, कहं ? एकसामयिक विग्रहमतस्य, उक्कोसं अंतोमुहुत्तं, विग्रहसमयादारभ्य औदारिकशरीरपर्याप्तकस्य यावदेवं अन्तमुहूर्तम् दृष्टव्यम् / सूत्राणि ह्यमूनि विचित्राभिप्रायतया दुर्लक्ष्याणीति सम्यकसम्प्रदायादवसातव्यानि / सम्प्रदायश्च यथोक्तस्वरूपमिति न काचिदनुपपत्तिः / न च सूत्राभिप्रायमज्ञात्वा अनुपपत्तिरूपाभावनीया। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org