Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 701
________________ 190 जीवाजीवामिगमसूत्र केवलदसणी साइए अपज्जवसिए / ___ चक्खुदंसणिस्स अंतरं जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं वणस्सहकालो। अचक्खुदंसणिस्स दुविहस्स नत्थि अंतरं / प्रोहिदंसणिस्स जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो। केवलसणिस्स पत्थि अंतरं। .अप्पाबहुयं-सव्वत्थोवा प्रोहिदसणी, चक्खुदंसणी असंखेज्जगुणा, केवलदसणी प्रणंतगुणा, अचक्षुदंसणी अणंतगुणा। 246. अथवा सर्व जीव चार प्रकार के हैं-चक्षुर्दर्शनी, अचक्षुर्दर्शनी, अवधिदर्शनी और केवलदर्शनी। भगवन् ! चक्षुर्दर्शनी काल से लगातार कितने समय तक चक्षुर्दर्शनी रह सकता है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक एक हजार सागरोपम तक रह सकता है। अचक्षुर्दर्शनी दो प्रकार के हैं-अनादि-अपर्यवसित और अनादि-सपर्यवसित। अवधिदर्शनी लगातार जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से साधिक दो छियासठ सागरोपम तक रह सकता है। केवलदर्शनी सादि-अपर्यवसित है। चक्षुर्दर्शनी का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है। दोनों प्रकार के अचक्षदर्शनी का अन्तर नहीं है / अवधिदर्शनी का जघन्य अन्तर अन्तमुहर्त और उत्कर्ष वनस्पतिकाल है। केवलदर्शनी का अन्तर नहीं है। अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े अवधिदर्शनी, उनसे चक्षुर्दर्शनी असंख्येयगुण हैं, उनसे केवलदर्शनी अनन्तगुण हैं और उनसे अचक्षुर्दर्शनी भी अनन्तगुण हैं / विवेचन--दर्शन को लेकर सब जीवों का चातुर्विघ्य इस सूत्र में बताकर उनकी कायस्थिति, अन्तर और अल्पबहुत्व प्रतिपादित किया गया है। ___ कायस्थिति-चक्षुर्दर्शनी, चक्षुर्दर्शनीरूप में जघन्य से अन्तर्मुहूर्त तक रह सकता है। अचक्षुदर्शनी से निकलकर चक्षुर्दर्शनी में अन्तर्मुहूर्त काल तक रहकर पुनः प्रचक्षुर्दर्शनी में जा सकता है। उत्कर्ष से साधिक एक हजार सागरोपम तक रह सकता है। अचक्षुर्दर्शनी दो प्रकार के हैं--अनादि-अपर्यवसित जो कभी सिद्धि प्राप्त नहीं करेगा और अनादि-सपर्यवसित भव्य जीव जो सिद्धि प्राप्त करेगा। अनादि और अपर्यवसित की कालमर्यादा नहीं है। अवधिदर्शनी उसी रूप में जघन्य से एक समय तक रहता है। अवधिदर्शन प्राप्त करने के पश्चात् कोई एक समय में ही मरण को प्राप्त हो जाय अथवा मिथ्यात्व में जाने से या दुष्ट अध्यवसाय के कारण अवधि से प्रतिपात हो सकता है। उत्कर्ष से साधिक दो छियासठ (66+66) सागरोपम तक रह सकता है / इसकी युक्ति इस प्रकार है For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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