________________ सर्वजीवाभिगम] [ 191 कोई विभंगज्ञानी तिर्यंच या मनुष्य नीचे सप्तम पृथ्वी में उत्पन्न हुआ / वहां तेतीस सागरोपम तक रहा / उद्वर्तनाकाल नजदीक आने पर सम्यक्त्व को पाकर पुनः उसे छोड़ देता है और विभंगज्ञान सहित पूर्वकोटि आयु वाले तिर्यंच में उत्पन्न हुआ और वहां से पुनः विभंगसहित ही अधःसप्तमी पृथ्वी में उत्पन्न हया और तेतीस सागरोपम तक स्थित रहा / उदवर्तनाकाल में थोड़ी देर सम्यक्त्व पाकर उसे छोड़ देता है और विभंग सहित पुनः पूर्वकोटि आयु वाले तिर्यंच में उत्पन्न होता है। इस प्रकार दो बार सप्तम पृथ्वी में उत्पन्न होने तथा दो बार तिर्यंच में उत्पन्न होने से साधिक 66 सागरोपम काल होता है / विग्रह में विभंग का प्रतिषेध होने से अविग्रह रूप से उत्पन्न होना कहना चाहिए।' उक्त कथन में जो बीच-बीच में थोड़ी देर के लिए सम्यक्त्व होने की बात कही गई है, वह इसलिए कि विभंगज्ञान देशोन तेतीस सागरोपम पूर्वकोटि अधिक तक ही उत्कर्ष से रह सकता है। अतएव बीच में सम्यक्त्व का थोड़ी देर के लिए होना कहा गया है। उक्त रीति से साधिक एक 66 सागरोपम तक रहने के बाद वह विभंगज्ञानी अपतित विभंग की स्थिति में ही मनुष्यत्व पाकर सम्यक्त्व पूर्वक संयम की आराधना करके विजयादि विमानों में दो बार उत्पन्न हो तो दूसरे 66 सागरोपम तक वह अवधिदर्शनी रहा / अवधिदर्शन तो अवधिज्ञान और विभंगज्ञान में तुल्य ही होता है। इस अपेक्षा से अवधिदर्शनी दो छियासठ सागरोपम तक उस रूप में रह सकता है। केवलदर्शनी सादि-अपर्यवसित है, अतः कालमर्यादा नहीं है। अन्तरद्वार-चक्षुर्दर्शनी का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त है। इतने काल का अचक्षुर्दर्शन का व्यवधान होकर पुनः चक्षुर्दर्शनी हो सकता है / उत्कर्ष से अन्तर वनस्पतिकाल है / अनादि-अपर्यवसित अचक्षुर्दर्शन का अन्तर नहीं है / अनादि-सपर्यवसित का भी अंतर नहीं है। अचक्षुर्दर्शनित्व के चले जाने पर फिर अचक्षुर्दर्शनित्व नहीं होता; जिसके घातिकर्म क्षीण हो गये हों, उसका प्रतिपात नहीं होता। अवधिदर्शनी का जघन्य अन्तर एक समय का है। प्रतिपात के अनन्तर समय में ही पुनः उसका लाभ हो सकता है। कहीं-कहीं अन्तर्मुहूर्त ऐसा पाठ है / इतने व्यवधान के बाद पुनः उसकी प्राप्ति हो सकती है / उक्त पाठ निर्मूल नहीं है, क्योंकि मूल टीकाकार ने भी मतान्तर के रूप में उसका उल्लेख किया है / उत्कर्ष से अवधिदर्शनी का अन्तर वनस्पतिकाल है। इतने व्यवधान के बाद पुनः अवश्य अवधिदर्शन होता है / अनादि मिध्यादृष्टि को भी होने में कोई विरोध नहीं है / ज्ञान तो सम्यक्त्व सहित ही होता है, किन्तु दर्शन, सम्यक्त्वसहित ही हो ऐसा नहीं है। केवलदर्शनी सादि-अपर्यवसित होने से अन्तर नहीं है। अल्पबहुत्वद्वार—अवधिदर्शनी सबसे थोड़े हैं, क्योंकि वह देव, नारक और कतिपय गर्भज तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्य को ही होता है। उनसे चक्षुर्दर्शनी असंख्येयगुण हैं, क्योंकि सम्मूछिम तिर्यक् पंचेन्द्रिय और चतुरिन्द्रियों को भी वह होता है। उनसे केवलदर्शनी अनन्तगुण हैं, क्योंकि सिद्ध अनन्त हैं / उनसे अचक्षुर्दर्शनी अनन्तगुण हैं, क्योंकि एकेन्द्रियों के भी अचक्षुर्दर्शन होता है। 1. विभंगणाणी पंचेंदिय तिरिक्खजोणिया मणुया य पाहारगा, नो अनाहारगा। 2. "विभंगणाणी जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई देसूणाए पुन्चकोडिए अब्भहियाइं त्ति"। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org