Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 696
________________ सर्वजीवाभिगम] [155 और उत्कृष्ट साधिक दो हजार सागरोपम तक रह सकता है। स्थावर, स्थावर के रूप में वनस्पतिकाल पर्यन्त रह सकता है। नोत्रस-नोस्थावर सादि-अपर्यवसित हैं। अस का अन्तर वनस्पतिकाल है और स्थावर का अन्तर साधिक दो हजार सागरोपम है। नोत्रस-नोस्थावर का अन्तर नहीं है। अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े स हैं, उनसे नोत्रस-नोस्थावर (सिद्ध) अनन्तगुण हैं और उनसे स्थावर अनन्तगुण हैं। यह सर्व जीवों की विविध प्रतिपत्ति पूर्ण हुई। ( यह सूत्र वृत्ति में नहीं है। भवसिद्धिकादि सूत्र के बाद “से तं तिविहा सव्वजीवा पण्णत्ता" कहकर समाप्ति की गई है।) सर्वजीव-चतुविध-वक्तव्यता 244. तत्थ णं जेते एवमाहंसु चम्विहा सवजीवा पण्णत्ता, ते एवमाहंसु, तं जहामणजोगी, वइजोगी, कायजोगी, प्रजोगी। ___ मणजोगी गं भंते ! * ? जहन्नेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं अंतोमुहत्तं / एवं वइजोगीवि / कायजोगी जहन्नेणं अंतोमुहुत उक्कोसेणं वणस्सइकालो / अजोगी साइए अपज्जवसिए। मणजोगिस्स अंतरं जहणणं अंतोमुहुत्त उक्कोसेणं वणस्सइकालो / एवं वइजोगिस्सवि / कायजोगिस्स जहन्नेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं अंतोमहत्त / अयोगिस्स पत्थि अंतरं। अप्पाबयंसव्वत्थोवा मणजोगी, वइजोगी असंखेज्जगुणा, अजोगी अणंतगुणा, कायजोगी अणंतगुणा / 244. जो ऐसा कहते हैं कि सर्व जीव चार प्रकार के हैं, उनके कथनानुसार वे चार प्रकार ये हैं-मनोयोगी, वचनयोगी, काययोगी और अयोगी। भगवन् ! मनोयोगी, मनोयोगी रूप में कितने समय तक रहता है ? गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक रहता है / वचनयोगी भी इतना ही रहता है। काययोगी जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से वनस्पतिकाल तक रहता है / अयोगी सादि-अपर्यवसित है। मनोयोगी का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है। वचनयोगी का भी अन्तर इतना ही है / काययोगी का जघन्य अन्तर एक समय का है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अयोगी का अन्तर नहीं है। अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े मनोयोगी, उनसे वचनयोगी असंख्यातगुण, उनसे अयोगी अनन्तगुण और उनसे काययोगी अनन्तगुण हैं / विवेचन-योग-अयोग की अपेक्षा से यहां सर्व जीवों के चार भेद कहे गये हैं—मनोयोगी, वचनयोगी, काययोगी और अयोगी। इन चारों की संचिट्ठणा, अन्तर और अल्पबहुत्व प्रस्तुत सूत्र में कहा गया है। संचिटणा--मनोयोगी जघन्य से एक समय तक मनोयोगी रह सकता है। उसके बाद द्वितीय समय में मरण हो जाने से या मनन से उपरत हो जाने की अपेक्षा से एक समय कहा गया है। जैसाकि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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