Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 689
________________ 178] [ जीवाजीवाभिगमसूत्र अन्तर है / यदि सम्यग्मिध्यादर्शन से गिरकर फिर सम्यग्मिथ्यादर्शन का लाभ हो तो नियम से इतने काल के बाद होता ही है, अन्यथा मुक्ति होती है / ___अल्पमहत्वद्वार--सबसे थोड़े सम्यग्मिथ्यादृष्टि हैं, क्योंकि तद्योग्य परिणाम थोड़े काल तक रहते हैं और पृच्छा के समय वे अल्प ही प्राप्त होते हैं / उनसे सम्यग्दृष्टि अनन्तगुण हैं, क्योंकि सिद्ध जीव भी सम्यग्दृष्टि हैं और वे अनन्त हैं / उनसे मिथ्यादृष्टि अनन्तगुण हैं, क्योंकि वनस्पतिजीव सिद्धों से भी अन्ततगुण हैं और वे मिथ्यादृष्टि हैं। 238. अहवा तिविहा सव्वजीवा पण्णत्ता-परित्ता अपरित्ता नोपरित्ता-नोअपरिता। परिते णं भंते ! कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! परिते दुविहे पण्णत्ते कायपरित्तेय संसारपरिते य / कायपरिते णं भंते ! कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं अन्तोमुहत्तं उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं जाव असंखेज्जा लोगा। संसारपरित्ते णं भंते ! संसारपरितेत्ति कालमो केवचिरं होइ ? जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं अणंतं कालं जाव प्रवड्ड पोग्गलपरिय देसूर्ण / अपरित्ते णं भंते ? अपरित्ते दुविहे पण्णत्ते-कायअपरित्ते य संसारअपरिते य / कायअपरित्ते णं जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं अणंतं कालं-वणस्सइकालो। संसारापरित्ते दुविहे पण्णत्ते- अणाइए वा अपज्जवसिए, अणाइए वा सपज्जवसिए / णोपरित्ते-णोअपरित्ते साइए अपज्जवसिए। कायपरित्तस्स जहन्नेणं अंतरं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो। संसारपरित्तस्स पत्थि अंतरं / कायपरित्तस्स जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं असंखिज्ज कालं पुढविकालो। संसारापरित्तस्स प्रणाइयस्स अपज्जवसियस्स णत्थि अंतरं / अणाइयस्स सपज्जवसियस्स नत्थि अंतरं। णोपरित्त-नोअपरित्तस्सविणस्थि अंतरं। अप्पाबहुयं-सव्वत्थोवा परित्ता, गोपरिता-नोअपरित्ता प्रणतगुणा, अपरित्ता अणंतगुणा। 238. अथवा सर्व जीव तीन प्रकार के हैं—परित्त, अपरित्त और नोपरित्त-नोअपरित्त / भगवन् ! परित्त, परित्त के रूप में कितने काल तक रहता है ? गौतम! परित्त दो प्रकार के हैं--कायपरित्त और संसारपरित्त। भगवन् ! कायपरित्त, कायपरित्त के रूप में कितने काल तक रहता है ? गौतम ! जघन्य से अन्तमुहूर्त और उत्कर्ष से असंख्येय काल तक यावत् असंख्येय लोक / भंते ! संसारपरित, संसारपरित्त के रूप में कितने काल तक रहता है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से अनन्तकाल जो यावत् देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्तरूप है। भगवन् ! अपरित्त, अपरित्त के रूप में कितने काल तक रहता है ? गौतम ! अपरित्त दो प्रकार के हैं--काय-अपरित्त और संसार-अपरित्त / भगवन् ! काय-अपरित्त, काय-अपरित्त के रूप में कितने काल रहता है ? गौतम ! जघन्य से अंतर्मुहूर्त और उत्कर्ष से अनन्तकाल अर्थात् वनस्पतिकाल तक रहता है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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