Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 691
________________ 10] [जीवाजीवाभिगमसूत्र नोपरित्त-नोअपरित्त सिद्ध जीव है। वह सादि-अपर्यवसित है, क्योंकि वहां से प्रतिपात नहीं होता। अन्तरद्वार-काय-परित्त का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त है। साधारणों में अन्तर्मुहूर्त तक रहकर पुनः प्रत्येकशरीरी में पाया जा सकता है। उत्कर्ष से अनन्तकाल पूर्वोक्त वनस्पतिकाल समझना चाहिए / उतने काल तक साधारण रूप में रह सकता है। संसार-परित्त का अन्तर नहीं है। क्योंकि संसार-परित्तत्व से छूटने पर पुनः संसार-परित्तत्व नहीं होता तथा मुक्त का प्रतिपात नहीं होता। काय-अपरित्त का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त है। प्रत्येक-शरीरों में अन्तर्मुहूर्त तक रहकर पुनः काय-अपरित्तों में पाना संभव है। उत्कर्ष से असंख्येयकाल का अन्तर है। यह असंख्येयकाल पृथ्वी काल है। इसका स्पष्टीकरण कालमार्गणा और क्षेत्रमार्गणा से पहले किया जा चुका है / पृथ्वी आदि प्रत्येकशरीरी भवों में भ्रमणकाल उत्कर्ष से इतना ही है। ___ संसार-अपरित्तों में जो अनादि-अपर्यवसित हैं, उनका अन्तर नहीं होता अपर्यवसित होने से और अनादि-सपर्यवसित का भी अन्तर नहीं होता, क्योंकि संसार-अपरित्तत्व के जाने पर पुनः संसारअपरित्तत्व संभव नहीं है। नोपरित्त-नोअपरित्त का भी अन्तर नहीं है, क्योंकि वे सादि-अपर्यवसित होते हैं। अल्पबहुत्वद्वार--सबसे थोड़े परित्त हैं, क्योंकि कार्य-परित्त और संसार-परित्त जीव थोड़े हैं / उनसे नोपरित्त-नोअपरित्त अनन्तगुण हैं, क्योंकि सिद्ध जीव अनन्त हैं। उनसे अपरित्त अनन्तगुण हैं, क्योंकि कृष्णपाक्षिक अतिप्रभूत हैं। 239. अहवा तिविहा सन्दजीवा पण्णत्ता, तं जहा—पज्जत्तगा, अपज्जत्तगा, नोपज्जत्तगानोअपज्जत्तगा। पज्जत्तगे गं भंते ! * ? जहष्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं सागरोवमसयपुहुत्तं साइरेगं / अपज्जत्तो णं भंते०? जहन्नेणं अंतोमुहत्त, उक्कोसेणं अंतोमुत्तं / नोपज्जत्त-नोअपज्जत्तए साइए अपज्जवसिए। ___ पज्जत्तगस्स अंतरं जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं अंतोमुहत्तं / अपज्जत्तगस्स जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं सागरोवमसयपुहुत्तं साइरेगं / तइयस्स पत्थि अंतरं। __ अप्पाबहुयं सव्वत्थोवा नोपज्जत्तग-नोअपज्जत्तगा, अपज्जत्तगा अणंतगुणा, पज्जत्तगा संखिज्जगुणा। ___ 239. अथवा सब जीव तीन तरह के हैं-पर्याप्तक, अपर्याप्तक और नोपर्याप्तकनोअपर्याप्तक / भगवन् ! पर्याप्तक, पर्याप्तक रूप में कितने समय तक रहता है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से साधिक सागरोपमशतपृथक्त्व ( दो सौ से नौ सौ सागरोपम) तक रह सकता है। ___भगवन् ! अपर्याप्तक, अपर्याप्तक के रूप में कितने समय तक रह सकता है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कर्ष से भी अन्तर्मुहूर्त तक रह सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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