Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 690
________________ सर्व जीवाभिगम] 179 संसार-प्रपरित्त दो प्रकार के हैं-अनादि-अपर्यवसित और अनादि-सपर्यवसित / नोपरित्त-नोअपरित सादि-अपर्यवसित है / कायपरित्त का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर वनस्पतिकाल है। संसारपरित्त का अन्तर नहीं है। काय-अपरित्त का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्येयकाल अर्थात् पृथ्वीकाल है। अनादि-अपर्यवसित संसारापरित्त का अंतर नहीं है / अनादि-सपर्यवसित संसारापरित्त का अन्तर नहीं है। अनादि-सपर्यवसित संसारापरित्त का भी अन्तर नहीं है। नोपरित्त-नोअपरित्त का भी अन्तर नहीं है। अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े परित्त हैं, नोपरित्त-नोअपरित्त अनन्तगुण हैं और अपरित्त अनन्तगुण हैं। विवेचन--अन्य विवक्षा से सर्व संसारी जीव तीन प्रकार के हैं—परित्त, अपरित्त और नोपरित्त-नोअपरित्त / परित्त का सामान्यतया अर्थ है सीमित / जिन्होंने संसार को तथा साधारण वनस्पतिकाय को सीमित कर दिया है, वे जीव परित्त कहलाते हैं। इससे विपरीत अपरित्त हैं तथा सिद्धजोव नोपरित्त-नोअपरित्त हैं / इन तीनों प्रकार के जीवों की कायस्थिति, अन्तर और अल्पबहुत्व का विचार इस सूत्र में किया गया है / कायस्थिति--परित्त दो प्रकार के हैं--कायपरित्त और संसारपरित्त / कायपरित्त अर्थात् प्रत्येकशरीर / संसारपरित्त अर्थात् जिसका संसार-परिभ्रमणकाल अपार्धपुद्गलपरावर्त के अन्दरअन्दर है। परित्त जघन्य से अन्तमुहर्त तक कायपरित्त रह स क कायपरित्त रह सकता है। वह साधारणवनस्पति से परित्तों में अन्तर्मुहूर्त काल तक रहकर पुनः साधारण में चले जाने की अपेक्षा से है। उत्कर्ष से असंख्येयकाल तक रह सकता है। यह असंख्येयकाल असंख्येय उत्सपिणी-अवसपिणी रूप है तथा क्षेत्र से असंख्येय लोकों के आकाशप्रदेशों का प्रतिसमय एक-एक के मान से अपहार करने पर जितने समय में वे निर्लेप हो जायें, उतने समय तक का है। अथवा यों कह सकते हैं कि पृथ्वी काय आदि प्रत्येकशरीरी का जितना संचिट्ठणकाल है, उतने काल तक रह सकता है। इसके पश्चात् नियम से साधारण रूप में पैदा होता है। संसारपरित्त जघन्य से अन्तर्मुहूर्त तक उसी रूप में रह सकता है / इसके बाद कोई अन्तकृत्केवली होकर मोक्ष में जा सकता है। उत्कर्ष से अनन्तकाल तक उसी रूप में रह सकता है। वह अनन्तकाल कालमार्गणा से अनन्त उत्सपिणी-अवपिणी रूप होता है और क्षेत्र से अपार्धपूदगलपरावर्त होता है / इसके बाद नियम से वह सिद्धि प्राप्त करता है। अन्यथा संसारपरित्तत्व का कोई मतलब नहीं रहता। अपरित्त दो प्रकार के हैं--काय-अपरित्त और संसार-अपरित्त / काय-अपरित्त साधारणवनस्पति जीव हैं और संसार-अपरित्त कृष्णपाक्षिक जीव हैं। काय-अपरित्त जघन्य से अन्तर्मुहूर्त उसी रूप में रह सकता है, तदनन्तर किसी भी प्रत्येकशरोरी में जा सकता है / उत्कर्ष से वह अनन्तकाल तक उसी रूप में रह सकता है / यह अनन्तकाल वनस्पतिकाल है, जिसका स्पष्टीकरण पहले कालमार्गणा और क्षेत्रमार्गणा से किया जा चुका है। ___ संसार-अपरित्त दो प्रकार के हैं-अनादि-अपर्यवसित, जो कभी मोक्ष में नहीं जायेगा और अनादि-सपर्यवसित (भव्य विशेष)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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