________________ सर्व जीवाभिगम] [177 सम्यग्मिथ्यादृष्टि का जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल है, जो देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त रूप है / अल्पबहुत्वद्वार में सबसे थोड़े सम्यग्मिथ्यादृष्टि हैं, उनसे सम्यग्दृष्टि अनन्तगुण हैं और उनसे मिथ्यादृष्टि अनन्तगुण हैं। विवेचन सर्व जोव तीन प्रकार के हैं-- सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि / इनका स्वरूप पहले बताया जा चुका है। यहां इनकी कायस्थिति (संचिट्ठणा), अन्तर और अल्पबहुत्व को लेकर विवेचना की गई है। कायस्थिति-सम्यग्दृष्टि दो प्रकार के हैं—सादि-अपर्यवसित (क्षायिक सम्यग्दृष्टि) और सादि-सपर्यवसित (क्षायोपशमिक आदि सम्यग्दर्शनी)। इनमें जो सादि-सपर्यवसित सम्यग्दृष्टि हैं, उनकी संचिटणा (कायस्थिति) जघन्य से अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि विचित्र कर्मपरिणाम होने से इतने काल के पश्चात् कोई जीव मिथ्यात्व में चला जा सकता है। उत्कर्ष से छियासठ सागरोपम तक वह रह सकता है / इसके बाद नियम से क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन नहीं रहता। मिथ्यादष्टि तीन प्रकार के हैं--अनादि-अपर्यवसित, अनादि-सपर्यवसित और सादि-सपर्यवसित। इनमें जो सादि-सपर्यवसित है वह जघन्य से अन्तर्मुहर्त तक रहता है। इतने काल के बाद कोई जीव पुन: सम्यग्दर्शन पा सकता है। उत्कर्ष से अनन्तकाल तक रह सकता है। यह अनन्तकाल कालमार्गणा से अनन्त उत्सर्पिणी-अवपिणी रूप है और क्षेत्रमार्गणा से देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त है, क्योंकि जिसने पहले एक बार भी सम्यक्त्व पा लिया हो, वह इतने काल के बाद पुनः अवश्य सम्यग्दर्शन पा लेता है / पूर्व सम्यक्त्व के प्रभाव से उसने संसार को परित्त कर लिया होता है / सम्यग्मिथ्यादृष्टि उस रूप में जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से भी अन्तर्मुहूर्त काल तक रहता है, क्योंकि स्वभावतः मिश्रदृष्टि का इतना ही कालप्रमाण है। केवल जघन्य से उत्कृष्ट पद अधिक है। अन्तरद्वार-सादि-अपर्यवसित सम्यग्दष्टि का अन्तर नहीं है, क्योंकि वह अपर्यवसित है। सादि-सपर्यवसित सम्यग्दृष्टि का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि सम्यक्त्व से गिरकर कोई जीव अन्तर्मुहूर्त काल में पुनः सम्यक्त्व पा लेता है। उत्कर्ष से उसका अन्तर अनन्तकाल अर्थात अपार्धपुद्गलपरावर्त है / अनादि-अपर्यवसित मिथ्यादृष्टि का अन्तर नहीं है, क्योंकि उसका मिथ्यात्व छूटता ही नहीं है। अनादि-सपर्यवसित मिथ्यात्व का भी अन्तर नहीं है, क्योंकि छूटकर पुनः होने पर अनादित्व नहीं रहता। सादि-सपर्यवसित मिथ्यादृष्टि का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक छियासठ सागरोपम है, क्योंकि सम्यग्दर्शन का काल ही मिथ्यादर्शन का प्राय: अन्तर है / सम्यग्दर्शन का जधन्य और उत्कर्ष काल इतना ही है। सम्यरिमथ्यादृष्टि का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि सम्यग्मिथ्यादर्शन से गिरकर कोई अन्तर्मुहूर्त में फिर सम्यग्मिथ्यादर्शन पा लेता है। उत्कर्ष से देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org