________________ सर्वजीवाभिगम] [175 सशरीरी और अशरीरी की वक्तव्यता सिद्ध और प्रसिद्धवत् जाननी चाहिए। 236. अथवा दुविहा सव्वजीवा पण्णता, तं जहा-चरिमा चेव प्रचरिमा चेव / चरिमे णं भंते ! चरिमेत्ति कालमो केवचिरं होइ ? गोयमा ! चरिमे अणाइए सपज्जवसिए। अचरिमे दुविहे पण्णत्ते-अणाइए वा अपज्जवसिए, साइए वा अपज्जवसिए / दोण्हंपि णस्थि अंतरं / अप्पाबहुयं-सव्वत्थोवा अचरिमा, चरिमा अणंतगुणा / (सेत्तं दुविहा सव्वजीवा पण्णत्ता।) 236. अथवा सर्व जीव दो प्रकार के हैं-चरम और अचरम / भगवन् ! चरम, चरमरूप में कितने काल तक रहता है ? गौतम ! चरम अनादि-सपर्यवसित है। अचरम दो प्रकार के हैं.--अनादि-अपर्यवसित और सादि-अपर्यवसित / दोनों का अन्तर नहीं है। अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े अचरम हैं, उनसे चरम अनन्तगुण हैं। (यह सर्व जीवों की दो भेदरूप प्रतिपत्ति पूरी हुई।) विवेचन-चरम और अचरम के रूप में सर्व जीवों के दो भेद इस सूत्र में वर्णित हैं / चरम भव वाले भव्य विशेष जो सिद्ध होंगे, वे चरम कहलाते हैं। इनसे विपरीत अचरम कहलाते हैं। ये अचरम हैं अभव्य और सिद्ध / कायस्थितिसूत्र में चरम अनादि-सपर्यवसित हैं अन्यथा वह चरम नहीं कहा जा सकता। अचरमसूत्र में अचरम दो प्रकार के हैं-अनादि-अपर्यवसित और सादि-अपर्यवसित / अनादि-अपर्यवसित-अचरम अभव्य जीव है और सादि-अपर्यवसित-अचरम सिद्ध हैं। अन्तरद्वार में दोनों का अन्तर नहीं है। अनादि-सपर्यवसित-चरम का अन्तर नहीं है, क्योंकि चरमत्व के जाने पर पुनः चरमत्व सम्भव नहीं है। अचरम चाहे अनादि-अपर्यवसित हो, चाहे सादिअपर्यवसित हो, उसका अन्तर नहीं है, क्योंकि इनका चरमत्व होता ही नहीं। अल्पबहुत्वसूत्र में सबसे थोड़े अचरम हैं, क्योंकि अभव्य और सिद्ध ही अचरम हैं। उनसे चरम अनन्तगुण हैं। सामान्य भव की अपेक्षा से यह कथन समझना चाहिए, अन्यथा अनन्तगुण नहीं घट सकता / जैसा कि मूल टीकाकार ने कहा है -"चरम-अनन्तगुण हैं / सामान्य भव्यों की अपेक्षा से यह समझना चाहिए। सूत्रों का विषय-विभाग दुर्लक्ष्य है।" इस प्रकार सर्व जीव सम्बन्धी विविध प्रतिपत्ति पूरी हई। इसमें कही गई द्विविध वक्तव्यता को संग्रहीत करनेवाली गाथा इस प्रकार है सिद्धसइंदियकाए जोए वेए कसायलेसा य / नाणुवओगाहारा भाससरीरी य चरमो य / / इसका अर्थ स्पष्ट हो है। 1. "चरमा अनन्तगुणाः, समान्यभन्यापेक्षमेतदिति भावनीयं, दुर्लक्ष्यः सूत्राणां विषयविभागः।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org