Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 687
________________ 176] [जीवाजीवाभिगमसूत्र सर्वजीव-विविध-वक्तव्यता 237. तत्थ णं जेते एवमाहंसु तिविहा सध्वजीवा पण्णत्ता, ते एवमाहंसु तं जहा-सम्मदिट्ठी, मिच्छादिट्ठी, सम्मामिच्छादिट्ठी। ___ सम्मविट्ठी णं भंते ! कालमो केवचिरं होइ ? गोयमा ! सम्मदिट्ठी दुविहे पण्णत्ते, तं जहासाइए वा अपज्जवसिए, साइए वा सपज्जवसिए। तत्थ जेते साइए सपज्जवसिए, से जहन्नेणं अंतो. मुहुत्तं उक्कोसेणं छावळिं सागरोवमाइं साइरेगाई। मिच्छादिट्ठी तिविहे-साइए वा सपज्जवसिए, अणाइए वा अपज्जवसिए, प्रणाइए वा सपज्जयासिए। तत्थ जेते साइए-सपज्जवसिए से जहण्णणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं अणंतकालं जाव अवड्ढं पोग्गलपरियट्ट देसूणं / सम्मामिच्छाविट्ठी जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणवि अंतोमुहत्तं / सम्मदिद्धिस्स अंतरं साइयस्स अपज्जवसियस्स णत्थि अंतरं / साइयस्स सपज्जवसियस्स जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसणं अणंतकालं जाय अवड्ढं पोग्गलपरियट्टा मिच्छादिद्धिस्स अणाइयस्स अपज्जवसियल्स पत्थि अंतरं, अणाइयस्स सपज्जवसिपस्स पत्थि अंतरं, साइयस्स सपज्जवसियस्स जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसणं छावदि सागरोषमाइं साइरेगाई। सम्मामिच्छादिट्रिस्स अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं अणंतं कालं जाव अवड्ढं पोग्गलपरियट देसूर्ण। अप्पाबहुयं-सव्वत्थोवा सम्मामिच्छादिट्ठी, सम्मदिट्ठी अणंतगुणा, मिच्छादिट्ठी अणंतगुणा। 237. जो ऐसा कहते हैं कि सर्व जीव तीन प्रकार के हैं, उनका मंतव्य इस प्रकार है-यथा सम्यग्दृष्टि, मिध्यादृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि / भगवन् ! सम्यग्दृष्टि काल से सम्यग्दृष्टि कब तक रह सकता है ? गौतम ! सम्यग्दृष्टि दो प्रकार के हैं—सादि-अपर्यवसित और सादि-सपर्यवसित। जो सादिसपर्यवसित सम्यग्दृष्टि हैं, वे जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से साधिक छियासठ सागरोपम तक रह सकते हैं। मिथ्यादष्टि तीन प्रकार के हैं. सादि-सपर्यवसित, अनादि-अपर्यवसित और अनादि-सपर्यवसित / इनमें जो सादि-सपर्यवसित हैं वे जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से अनन्तकाल तक जो यावत् देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त रूप है, मिथ्यादृष्टि रूप से रह सकते हैं। सम्यग्मिथ्यादृष्टि (मिश्रदृष्टि) जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से भी अन्तर्मुहूर्त तक रह सकता है। सम्यग्दृष्टि के अन्तरद्वार में सादि-अपर्यवसित का अंतर नहीं है, सादि-सपर्यवसित का जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल है, जो यावत् अपार्धपुद्गलपरावर्त रूप है। अनादि-अपर्यवसित मिथ्यादृष्टि का अन्तर नहीं है, अनादि-सपर्यवसित मिथ्यादृष्टि का भी अन्तर नहीं है, सादि-सपर्यवसित का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक छियासठ सागरोपम है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

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