Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 657
________________ 146] [जीवाजीवाभिगमसूत्र __ नैरयिकों का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल (अनन्तकाल) है। तिर्यक्योनिकों को छोड़कर सबका अन्तर उक्त प्रमाण ही कहना चाहिए / तिर्यक्योनिकों का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक सागरोपमशतपृथक्त्व है। अल्पबहुत्व—सबसे थोड़ी मानुषी स्त्रियां, उनसे मनुष्य असंख्यातगुण, उनसे नरयिक असंख्येयगुण, उनसे तिर्य स्त्रियां असंख्येयगुण, उनसे देव असंख्येयगुण, उनसे देवियां संख्यातगुण और उनसे तिर्यक्योनिक अनन्तगुण हैं। यह सप्तविधि संसारसमापनक प्रतिपत्ति समाप्त हुई। विवेचन-सप्तविधप्रतिपत्ति के अनुसार संसारसमापनक जीव सात प्रकार के हैं-नैरयिक, तिर्यक्योनिक, तिर्यस्त्रियां, मनुष्य, मानुषी स्त्रियां, देव और देवियां / इन सातों की स्थिति, संचिट्ठणा, अन्तर और अल्पबहुत्व इस सूत्र में प्रतिपादित है। स्थिति-नैरयिक की स्थिति जघन्य दसहजार वर्ष और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की है। तियंक्योनिक, तिर्यक्योनिकस्त्रियां, मनुष्य और मनुष्यस्त्रियां, इनकी जघन्यस्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीन पल्योपम है / देवों की स्थिति जघन्य दसहजार वर्ष और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम है। देवियों की स्थिति जघन्य दसहजार वर्ष और उत्कृष्ट पचपन पल्योपम की है / यह स्थिति अपरिगृहिता ईशानदेवियों की अपेक्षा से है संचिटणा नैरयिकों की, देवों की और देवियों की जो भवस्थिति है, वहीं उनकी संचिट्ठणाकायस्थिति जाननी चाहिए / क्योंकि नैरयिक और देव मरकर अनन्तरभव में नैरयिक या देव नहीं होते / तिर्यक्योनिकों की संचिट्ठणा जघन्य अन्तर्मुहूर्त ( इतने समय बाद अन्यत्र उत्पन्न होना संभव है) और उत्कृष्ट अनन्तकाल है / वह अनन्तकाल अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणीप्रमाण (कालमार्गणा की अपेक्षा से) है तथा क्षेत्रमार्गणा की अपेक्षा असंख्येय लोकाकाशप्रदेशों को प्रतिसमय एक-एक के अपहार करने पर जितने समय में वे खाली हों उतनाकाल समझना चाहिए तथा असंख्येयपुद्गलपरावर्तप्रमाण वह अनन्तकाल है। प्रावलिका के असंख्येयभाग में जितने समय हैं उतने वे पुद्गलपरावर्त जानना चाहिए। तिर्यंचस्त्रियों की संचिटणा (कायस्थिति) जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम है। निरन्तर पूर्वकोटि आयुष्यवाले सात भव और आठवें भव में देवकुरु आदि में उत्पन्न होने की अपेक्षा से है। मनुष्य और मनुष्यस्त्री सम्बन्धी कायस्थिति भी यही समझनी चाहिए / ___ अन्तर-नैरयिक का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त है। यह नरक से निकल कर तिर्यग् या मनुष्य गर्भ में अशुभ अध्यवसाय से मरकर नरक में उत्पन्न होने की अपेक्षा से समझना चाहिए। उत्कर्ष से अनन्तकाल है। यह अनन्तकाल वनस्पतिकाल समझना चाहिए। नरक से निकलकर अनन्तकाल वनस्पति में रहकर फिर नरक में उत्पन्न होने की अपेक्षा है। ___ तिर्यक्योनिक का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहर्त है और उत्कर्ष से साधिक सागरोपमशतपृथक्त्व (दो सौ से लेकर नौ सौ सागरोपम) है / तिर्यक्योनिकी, मनुष्य, मानुषी तथा देव, देवी सूत्र में जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल का अन्तर है।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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