________________ सर्वजीवाभिगम] सकषायिक और अकषायिक जीवों के विषय में यही सवेदक और अवेदक की वक्तव्यता कहनी चाहिए। 233. अहवा दुविहा सव्वजीवा पण्णत्ता--णाणी चेव अण्णाणी चेव / गाणी णं भंते ! कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! णाणी विहे पण्णते-साईए वा अपज्जवसिए साईए वा सपज्जवसिए। तस्थ णं जेसे साईए सपज्जवसिए से जहण्णणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं छावट्टिसागरोवमाइं साइरेगाई। अण्णाणी जहा सवेदया। __णाणिस्स अंतरं जहणणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं अणंतं कालं अवड पोग्गलपरियट्ट देसूणं / अण्णाणियस्स दोण्हवि आइल्लाणं णथि अंतरं, साइयस्स सपज्जवसियस्स जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं छावसिागरोवमाई साइरेगाई। अप्पाबहुयं--सव्वस्थोवा पाणी, अण्णाणी अणंतगुणा। अहवा दुविहा सव्वजीया पण्णत्ता-सागारोवउत्ता य अणागारोवउत्ताय / संचिट्ठणा अंतरं य जहण्णेणं उक्कोसेणवि अंतोमुहुत्तं। अप्पाबहुयं-सव्वत्थोवा प्रणागारोवउत्ता, सागारोवउत्ता संखेज्जगुणा। 233. अथवा सब जीव दो प्रकार के हैं~-ज्ञानी और अज्ञानी। भगवन् ! ज्ञानी, ज्ञानीरूप में कितने काल तक रहता है ? गौतम ! ज्ञानी दो प्रकार के हैं-सादि-अपर्यवसित और सादि-सपर्यवसित / इनमें जो सादिसपर्यवसित हैं वे जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक छियासठ सागरोपम तक रह सकते हैं / अज्ञानी के लिए वही वक्तव्यता है जो पूर्वोक्त सवेदक की है। ज्ञानी का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल, जो देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त रूप है / प्रादि के दो अज्ञानी- अनादि-अपर्यवसित और अनादि-सपर्यवसित अज्ञानी का अन्तर नहीं है। सादि-सपर्यवसित अज्ञानी का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक छियासठ सागरोपम है। अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े ज्ञानी, उनसे अज्ञानी अनन्तगुण हैं। अथवा दो प्रकार के सब जीव हैं-साकार-उपयोग वाले और अनाकार-उपयोग वाले। इनकी संचिटणा और अन्तर जघन्य और उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त है। अल्पबहुत्व में अनाकार-उपयोग वाले थोड़े हैं, उनसे साकार-उपयोग वाले संख्येयगुण हैं। विवेचन-ज्ञानी और अज्ञानी की अपेक्षा से सब जीवों का द्वैविध्य इस सूत्र में कहा गया है। ज्ञानी से यहां सम्यग्ज्ञानी अर्थ अभिप्रेत है और अज्ञानी से मिथ्याज्ञानी अर्थ समझना चाहिए / ज्ञानी दो प्रकार के हैं--सादि-अपर्यवसित और सादि-सपर्यवसित / केवली सादि-अपर्यवसित हैं, क्योंकि केवलज्ञान सादि-अनन्त है / मतिज्ञानी आदि सादि-सपर्यवसित हैं, क्योंकि मतिज्ञान आदि छाद्मस्थिक ने से सादि-सान्त हैं। इनमें जो सादि-सपर्यवसित ज्ञानी है, वह जघन्य से अन्तमूहर्त काल तक और उत्कृष्ट से छियासठ सागरोपम तक रहता। सम्यक्त्व की जधन्यस्थिति अन्तर्मुहूर्त है इस अपेक्षा से' सम्यक्त्वधारी ज्ञानी की जघन्यस्थिति अन्तर्मुहुर्त बतायी है। सम्यग्दर्शन का उत्कृष्ट काल छियासठ 1. “सम्यग्दृष्टेनिं मिथ्यादृष्टेविपर्यासः" इति वचनात् / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org