Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

Previous | Next

Page 679
________________ 168] [जीवाजोवाभिगमसूत्र सागरोपम से कुछ अधिक है, अतः ज्ञानी की उत्कृष्ट संचिट्ठणा छियासठ सागरोपम से कुछ अधिक बताई है। यह स्थिति सम्यक्त्व से गिरे बिना विजयादि में जाने की अपेक्षा से है। जैसा कि भाष्य में कहा है कि दो बार विजयादि विमान में अथवा तीन बार अच्युत देवलोक में जाने से छियासठ सागरोपम काल और मनुष्य के भवों का काल साधिक में गिनने से उक्त स्थिति बनती है।' अज्ञानी की संचिगुणा बताते हुए कहा गया है कि अज्ञानी तीन प्रकार के हैं ..अनादि-अपर्यवसित, अनादि-सपर्यवसित और सादि-सपर्यवसित / अनादि-अपर्यवसित अज्ञानी वह है जो कभी मोक्ष में नहीं जायेगा। अनादि-सपर्यवसित अज्ञानी वह है जो अनादि-मिथ्यादृष्टि सम्यक्त्व पाकर और उससे अप्रतिपतित होकर क्षपकश्रेणी को प्राप्त करेगा। सादि-सपर्यवसित अज्ञानी वह है जो सम्यग्दृष्टि बनकर मिथ्यादृष्टि बन गया हो / ऐसा अज्ञानी जघन्य से अन्तर्मुहूर्तकाल उसमें रहकर फिर सम्यग्दृष्टि बन सकता है, इस अपेक्षा से उसकी संचिट्ठणा जघन्य अन्तर्मुहूर्त कही है और उत्कर्ष से अनन्तकाल है, जो अनन्त उत्सपिणी और अवसर्पिणो रूप है तथा क्षेत्र से देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त है। अन्तरद्वार-सादि-अपर्यवसित ज्ञानी का अन्तर नहीं होता, क्योंकि अपर्यवसित होने से वह कभी उस रूप का त्याग नहीं करता / सादि-सपर्यवसित ज्ञानी का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त है / इतने काल तक मिथ्यादर्शन में रहकर फिर ज्ञानी हो सकता है। उत्कर्ष से अनन्तकाल (अनन्त उत्सर्पिणीअवपिणो रूप) है, जो क्षेत्र से देशोन अपार्धपदगलपरावर्त रूप है। क्योंकि सम्यग्दष्टि, सम्यक्त्व से गिरकर इतने काल तक मिथ्यात्व का अनुभव करके अवश्य ही फिर सम्यक्त्व पाता है। अज्ञानी का अन्तर बताते हुए कहा है कि अनादि-अपर्यवसित अज्ञानी का अन्तर नहीं है, क्योंकि वह अपर्यवसित होने से उस भाव का त्याग नहीं करता। अनादि-सपर्यवसित अज्ञानी का भी अन्तर नहीं है, क्योंकि केवलज्ञान प्राप्त करने पर वह जाता नहीं है। सादि-सपर्यवसित अज्ञानी का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि जघन्य सम्यग्दर्शन का काल इतना ही है। उत्कर्ष से साधिक छियासठ सागरोपम का अन्तर है, क्योंकि सम्यग्दर्शन से गिरने के बाद इतने काल तक अज्ञानी रह सकता है। अल्पबहुत्व सूत्र स्पष्ट ही है। ज्ञानियों से अज्ञानी अनन्तगुण हैं। अज्ञानी वनस्पतिजीव अनन्त हैं। अथवा सब जीवों के दो भेद उपयोग को लेकर किये गये हैं। दो प्रकार के उपयोग हैंसाकार-उपयोग और अनाकार-उपयोग। उपयोग की द्विरूपता के कारण सब जीव भी दो प्रकार के हैं-साकार-उपयोग वाले और अनाकार-उपयोग बाले / इन दोनों की संचिट्ठणा और अन्तर जघन्य और उत्कृष्ट दोनों अपेक्षा से अन्तर्मुहूर्त है। यहां टीकाकार लिखते हैं कि सत्रगति विचित्र होने से यहां सब जीवों से तात्पर्य छदमस्थ ही लेने चाहिए, केवली नहीं / क्योंकि केवलियों का साकार-अनाकार उपयोग एकसामयिक होने से कायस्थिति और अन्तरद्वार में एकसामयिक भी कहा जाना चाहिए, जो नहीं कहा गया है। वह “अन्तर्मुहूर्त" ही कहा गया है, जो छद्मस्थों में होता है। 1. दो वारे विजयाइस् गयस्स तिन्निऽअच्चुए अहव ताई। ___ अइरेगं नरभवियं नाणा जीवाण सव्वद्धा / / -भाष्यमाथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 677 678 679 680 681 682 683 684 685 686 687 688 689 690 691 692 693 694 695 696 697 698 699 700 701 702 703 704 705 706 707 708 709 710 711 712 713 714 715 716 717 718 719 720 721 722 723 724 725 726 727 728 729 730 731 732 733 734 735 736