________________ सर्वजीवाभिगम] [165 विवेचन--प्रस्तुत सूत्र में सर्वजीवाभिगम की द्विविध प्रतिपत्ति का अन्य-अन्य अपेक्षानों से प्ररूपण किया गया है। पूर्वसूत्र में सिद्धत्व और प्रसिद्धत्व को लेकर दो भेद किये थे। इस सूत्र में सेन्द्रिय-अनिन्द्रिय, सकायिक-अकायिक, सयोगी-अयोगी, सलेश्य-अलेश्य, सवेदक-अवेदक और सकषाय-अकषाय को लेकर सर्वजीवाभिगम का द्वैविध्य बताया है। टीकाकार के अनुसार सयोगी-योगी के अनन्तर ही सलेश्य-अलेश्य और सशरीर-अशरीर का कथन है, जबकि मूलपाठ में सलेश्य-अलेश्य के विषय में अन्त में अलग सूत्र दिया गया है / ___ सर्वजीवों के इन दो-दो भेदों में उपाधि और अनोपाधिकृत भेद हैं। कर्मजन्य-उपाधि के कारण सेन्द्रिय, सकायिक, सयोगी, सलेश्य, सवेदक और सकषायिक संसारी जीव कहे गये हैं। जबकि कर्मजन्य उपाधि से रहित होने के कारण अनिन्द्रिय, अकायिक, अयोगी, अलेश्य और अकषायिक सिद्ध जीव कहे गये हैं। सेन्द्रिय की कायस्थिति और अन्तर प्रसिद्ध की वक्तव्यता के अनुसार और अनिन्द्रिय की वक्तव्यता सिद्ध की वक्तव्यता के अनुसार कहनी चाहिए। वह इस प्रकार है---- भगवन् ! सेन्द्रिय के रूप में कितने काल तक रहता है ? गौतम ! सेन्द्रिय दो प्रकार के हैं--- अनादि-अपर्यवसित और अनादि-सपर्यवसित / प्रनिन्द्रिय, प्रनिन्द्रिय के रूप में कितने समय तक रहता है ? गौतम ! वह सादि-अपर्यवसित है। भगवन् ! सेन्द्रिय का काल से कितना अन्तर है ? गौतम ! अनादि-अपर्य वसित का अन्तर नहीं है; अनादि-सपर्यवसित का भी अन्तर नहीं है / अनिन्द्रिय का अन्तर कितना है ? गौतम ! सादि-अपर्यवसित का अन्तर नहीं है ? अल्पबहुत्व में अनिन्द्रिय थोड़े हैं और सेन्द्रिय अनन्तगुण हैं, क्योंकि सेन्द्रिय वनस्पतिजीव अनन्त हैं। इसीतरह की वक्तव्यता सकायिक-प्रकायिक, सयोगी-योगी, सलेश्य-अलेश्य और सशरीरअशरीर जीवों के विषय में भी कहनी चाहिए / अर्थात् इनको संचिट्ठणा (कायस्थिति), अन्तर और अल्पबहुत्व सेन्द्रिय-अनिन्द्रिय की तरह ही है। सवेदक-अवेदक और सकषायिक-अकषायिक के सम्बन्ध में विशेषता होने से पृथक् निरूपण है। वह इस प्रकार है सवेदक की कायस्थिति बताते हए कहा गया है कि सवेदक तीन प्रकार के हैं -1. अनादिअपर्यवसित. 2. अनादि-सपर्यवसित और 3. सादि-सपर्यवसित / उनमें अनादि-अपर्यवसित सवेदक या तो अभव्य जीव हैं या तथाविध सामग्री के अभाव से मुक्ति में न जाने वाले जीव हैं / क्योंकि कई भव्य जीव भो सिद्ध नहीं होते / ' अनादि-सपर्यवसित सवेदक वह भव्य जीव है, जो मुक्तिगामी है और जिसने पहले उपशमश्रेणी प्राप्त नहीं की है / सादि-सपर्यवसित सवेदक वह है जो भव्य मुक्तिगामी है और जिसने पहले उपशमश्रेणी प्राप्त की है / इनमें उपशमश्रेणी को प्राप्त कर वेदोपशम के उत्तरकाल में अवेदकत्व का अनुभव कर . श्रेणी समाप्ति पर भवक्षय से अपान्तराल में मरण होने से अथवा उपशमश्रेणी से गिरने पर पुनः 1. "भवावि ण सिझंति केइ / ' इति वचनात् / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org