Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 674
________________ सर्वजीवाभिगम] [163 भस्मीकृत कर दिया है, वे सिद्ध हैं।' अर्थात् जो कर्मबंधनों से सर्वथा मुक्त हो चुके हैं, वे सिद्ध हैं। जो संसार के एवं कर्म के बन्धनों से मुक्त नहीं हुए हैं, वे प्रसिद्ध हैं। सिद्ध सदा काल निजस्वरूप में रमण करते रहते हैं, अतः उनकी कालमर्यादारूप भवस्थिति नहीं कही गई है। उनकी कायस्थिति अर्थात् सिद्धत्व के रूप में उनकी स्थिति सदा काल रहती है। सिद्ध सादि-अपर्यवसित हैं / अर्थात् संसार से मुक्ति के समय सिद्धत्व की आदि है और सिद्धत्व की कभी च्युति न होने से अपर्यवसित हैं। असिद्ध दो प्रकार के हैं---अनादि-अपर्यवसित और अनादि-सपर्यवसित / जो अभव्य होने से या तथाविध सामग्री के प्रभाव से कभी सिद्ध नहीं होगा, वह अनादि-अपर्यवसित प्रसिद्ध है / जो सिद्धि को प्राप्त करेगा वह अनादि-सपर्यवसित है, अर्थात् अनादि संसार का अन्त करने वाला है। जब तक वह मुक्ति नहीं प्राप्त कर लेता, तब तक प्रसिद्ध, प्रसिद्ध के रूप में रहता है। ___ सिद्ध सिद्धत्व से च्युत होकर फिर सिद्ध नहीं बनते, अतएव उनमें अन्तर नहीं है। वे सादि और अपर्यवसित हैं, अतः अन्तर नहीं है / प्रसिद्धों में जो अनादि-अपर्यवसित हैं, उनका प्रसिद्धत्व कभी छूटेगा ही नहीं, अतः अन्तर नहीं है। जो अनादि-सपर्यवसित हैं, उनका भी अन्तर नहीं है, क्योंकि मुक्ति से पुनः प्राना नहीं होता / अल्पबहुत्वद्वार में सिद्ध थोड़े हैं और प्रसिद्ध अनन्तगुण हैं, क्योंकि निगोदजीव अतिप्रभूत हैं। ___ 232. अहवा दुविहा सव्वजोवा पण्णत्ता, तं जहा-सइंदिया चेव अणिदिया चेव / सइंदिए णं भंते ! सइंदिएत्ति कालो केचिरं होइ ? गोयमा ! सइंदिए दुविहे पण्णत्ते,--अणाइए वा अपज्जवसिए, अणाइए वा सपज्जवसिए / अणिदिए साइए वा अपज्जवसिए, दोण्हवि अंतरं स्थि / सव्यत्योवा अणिदिया, सइंदिया अणंतगुणा / अहवा दुविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा--सकाइया चेव अकाइया चेव / एवं चेव / एवं सजोगी चेव अजोगी चेव तहेव, (एवं सलेस्सा चेव अलेस्सा चेव, ससरोरा चेव प्रसरोरा चेव / ) संचिठ्ठणं अंतरं अप्पाबहुयं जहा सइंदियाणं। ___ अहवा दुविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा-सवेदगा चेव अवेदगा चेव / सवेदए णं भंते ! सवेदएत्ति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! सवेदए तिविहे पण्णते, तं जहा-अणाइए अपज्जवसिए, अणाइए सपज्जवसिए, साइए सपज्जवसिए / तत्थ णं जेसे साइए सपज्जवसिए से जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं अणंतकालं जाव खेतओ अवड्ढं पोग्गलपरियट्ट देसूणं / अवेयए णं भंते ! अवेयएत्ति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! अवेयए दुविहे पण्णत्ते, तं जहा--साईए वा अपज्जवसिए, साइए वा सपज्ज. वसिए। तत्य णं जेसे साइए सपज्जवसिए से जहणणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं अंतोमुत्तं / सवेयगस्स णं भंते ! केवइयं कालं अंतरं होइ ? अणादियस्स अपज्जवसियस्स पत्थि अंतरं। अणादियस्स सपज्जवसियस्स नस्थि अंतरं / सादियस्स सपज्जवसियस्स जहण्णणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं अंतोमुहत्तं / 1 सितं बद्धमष्टप्रकारं कर्म ध्मातं-भस्मीकृतं यैस्ते सिद्धा: / -वृति: Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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