Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 673
________________ 162] [जीवाजीवाभिगमसूत्र भगवन् ! असिद्ध, प्रसिद्ध के रूप में कितने समय तक रहता है ? गौतम ! प्रसिद्ध जीव दो प्रकार के हैं अनादि-अपर्यवसित और अनादि-सपर्यवसित / (अनादि-अपर्यवसित प्रसिद्ध सदाकाल प्रसिद्ध रहता है और अनादि-सपर्यवसित मुक्ति-प्राप्ति के पहले तक असिद्धरूप में रहता है।) भगवन् ! सिद्ध का अन्तर कितना है ? गौतम ! सादि-अपर्यवसित का अन्तर नहीं होता है / भगवन् ! असिद्ध का अंतर कितना होता है ? गौतम ! अनादि-अपर्यवसित प्रसिद्ध का अंतर नहीं होता है। अनादि-सपर्यवसित का भी अंतर नहीं होता है। भगवन् ! इन सिद्धों और प्रसिद्धों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े सिद्ध, उनसे प्रसिद्ध अनन्तगुण हैं। विवेचन-जैसे संसारसमापनक जीवों के विषयों में नौ प्रकार की प्रतिपत्तियां कही गई हैं, वैसे ही सर्वजीव के विषय में भी नौ प्रतिपत्तियां कही गई हैं। सर्वजीव में संसारी और मुक्त, दोनों प्रकार के जीवों का समावेश होता है / प्रतएव इन कही जाने वाली नौ प्रतिपत्तियों में सब जीवों का समावेश होता है। वे नौ प्रतिपत्तियां इस प्रकार हैं (1) कोई कहते हैं कि सब जीव दो प्रकार के हैं, यथा-सिद्ध और प्रसिद्ध / (2) कोई कहते हैं कि सब जीव तीन प्रकार के हैं, यथा-सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि / (3) कोई कहते हैं कि सब जीव चार प्रकार के हैं, यथा-मनयोगी, वचनयोगी, काययोगी और अयोगी। (4) कोई कहते हैं कि सब जीव पांच प्रकार के हैं, यथा-नरयिक, तिर्यंच, मनुष्य, देव और सिद्ध / (5) कोई कहते हैं कि सब जीव छह प्रकार के हैं औदारिकशरीरी, वैक्रियशरीरी, पाहारकशरीरी, तेजसशरीरी, कार्मणशरीरी और अशरीरी। (6) कोई कहते हैं कि सब जीव सात प्रकार के हैं, यथा--पृथ्वीकायिक, अपकायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, त्रसकायिक और प्रकायिक / (7) कोई कहते हैं सब जीव आठ प्रकार के हैं, यथा--मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी,. मनःपर्ययज्ञानी, केवलज्ञानी, मति-अज्ञानी, श्रुत-अज्ञानी और विभंगज्ञानी। (8) कोई कहते हैं कि सब जीव नौ प्रकार के हैं, यथा---एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रय, नैरयिक, तिर्यंच, मनुष्य, देव और सिद्ध / (9) कोई कहते हैं कि सब जीव दस प्रकार के हैं, यथा-पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय और अतीन्द्रिय / उक्त नौ प्रतिपत्तियों में से प्रत्येक में और भी विवक्षा से अन्य भेद भी किये गये हैं, जो यथास्थान कहे जायेंगे। जो ऐसा प्रतिपादन करते हैं कि सब जीव दो प्रकार के हैं, उनका मन्तव्य है कि सब जीवों का समावेश सिद्ध और प्रसिद्ध इन दो भेदों में हो जाता है / जिन्होंने आठ प्रकार के बंधे हुए कर्मों को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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