________________ अष्टविधाख्या सप्तम प्रतिपत्ति] [153 स्तोक ही हैं / उनसे अप्रथमसमयनै रयिक असंख्येयगुण हैं, क्योंकि यह चिरकाल-स्थायी होने से अन्यअन्य बहुत समयों में अतिप्रभूत उत्पन्न होते हैं। इस तरह तिर्यकयोनिक, मनुष्य और देवों में भी कहना चाहिए। विशेषता यह है कि तिर्यक्योनिकों में अप्रथमसमयतिर्यग्योनिक अनन्तगुण कहने चाहिए, क्योंकि वनस्पतिजीव अनन्त हैं। चौथा अल्पबहुत्व प्रथमसमय और अप्रथमसमय नारकादि का समुदितरूप में कहा गया है। सबसे थोड़े प्रथमसमयमनुष्य हैं, क्योंकि एक समय में संख्यातीत उत्पन्न होने पर भी स्तोक ही हैं / उनसे अप्रथमसमयमनुष्य असंख्येयगुण हैं, क्योंकि चिरकालस्थायी होने से वे अतिप्रभूत उपलब्ध होते हैं / उनसे प्रथमसमयनैरयिक असंख्येयगुण हैं, एक समय में अतिप्रभूत उत्पन्न होने से। उनसे प्रथमसमयदेव असंख्येयगुण हैं व्यन्तर ज्योतिष्कों में प्रभूत उत्पन्न होने से / उनसे प्रथमसमयतिर्यग्योनिक असंख्येयगुण है, क्योंकि नारकादि तीनों गतियों से आकर जीवों की उत्पत्ति होती रहती है। उनसे अप्रथमसमयनैरयिक असंख्येयगण हैं, क्योंकि वे अंगलमात्रक्षेत्रप्रदेश वर्गमूल में द्वितीय वर्गमूल का गुणा करने पर जो प्रदेशराशि होती है, उतनी श्रेणियों में जितनी प्रदेशराशि है, उसके तुल्य हैं। उनसे अप्रथमसमयतिर्यग्योनिक अनन्तगुण हैं, क्योंकि वनस्पतिजीव अनन्त हैं। इस प्रकार अष्टविधसंसारसमापन्नकजीवों का कथन करने वाली सप्तम प्रतिप // इति सप्तम प्रतिपत्ति // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org