________________ 152] [ जीवाजीवाभिगमसूत्र है। प्रथमसमय अधिक होने से समयाधिकता कही गई है। कहीं पर केवल अन्तर्मुहूर्त ही कहा गया है; इस कथन में प्रथम समय को भी अन्तर्मुहूर्त में हो सम्मिलित कर लिया गया है, अतः पृथक् नहों कहा गया है / उत्कर्ष से अन्तर वनस्पतिकाल है। प्रथमसमय तिर्यकयोनिक में जघन्य अन्तर एकसमय कम दो क्षल्लकभवग्रहण है। ये क्षुल्लक मनुष्य-भव ग्रहण के व्यवधान से पुनः तिर्यंचों में उत्पन्न होने की अपेक्षा से हैं। एकभव तो प्रथमसमय कम तिर्यक्-क्षुल्लकभव और दूसरा सम्पूर्ण मनुष्य का क्षुल्लकभवग्रहण है। उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है। उसके व्यतीत होने पर मनुष्यभव व्यवधान से पुनः प्रथमसमयतिर्यंच के रूप में उत्पन्न होने की अपेक्षा है। अप्रथमसमयतिर्यग्योनिक का जघन्य अन्तर समयाधिक क्षुल्लकभवग्रहण है। यह तिर्यक्योनिक-क्षुल्लकभवग्रहण के चरम समय को अधिकृत अप्रथमसमय मानकर उसमें मरने के बाद मनुष्य का क्षुल्लकभवग्रहण और फिर तिर्यंच में उत्पन्न होने के प्रथम समय व्यतीत हो जाने की अपेक्षा जानना चाहिए / उत्कर्ष से साधिक सागरोपमशतपृथक्त्व है। देवादि भवों में इतने काल तक भ्रमण के पश्चात् पुनः तिर्यंच में उत्पन्न होने की अपेक्षा से है। __ मनुष्यों की वक्तव्यता तिर्यक्-वक्तव्यता के अनुसार ही है। केवल वहां व्यवधान तिर्यक्भव का कहना चाहिए। देवों का कथन नैरयिकों के समान ही है। अल्पबहुत्व प्रथम अल्पबहुत्व प्रथमसमयनरयिकों यावत् प्रथमसमयदेवों को लेकर कहा गया है / जो इस प्रकार है सबसे थोड़े प्रथमसमयमनुष्य हैं। ये श्रेणी के असंख्येययभाग में रहे हुए प्राकाश-प्रदेशतुल्य हैं। उनसे प्रथमसमयनैरयिक असंख्येयगुण हैं, क्योंकि एक समय में ये अतिप्रभूत उत्पन्न हो सकते हैं। उनसे प्रथमसमयदेव असंख्येय गुण हैं-व्यन्तर ज्योतिष्कदेव एकसमय में प्रतिप्रभूततर उत्पन्न हो सकते हैं। उनसे प्रथमसमयतिर्यंच असंख्येयगुण हैं। यहां नरकादि तीन गतियों से आकर तिर्यंच के प्रथमसमय में वर्तमान हैं, वे ही प्रथमसमयतिर्यंच हैं, शेष नहीं / अतः यद्यपि प्रतिनिगोद का असंख्येयभाग सदा विग्रहगति के प्रथमसमयवर्ती होता है, तो भी निगोदों के भी तिर्यकत्व होने से वे प्रथमसमयतिर्यंच नहीं हैं / वे इनसे संख्येयगुण ही हैं। दूसरा अल्पबहुत्व अप्रथमसमयनैरयिकों यावत् अप्रथमसमयदेवों को लेकर कहा गया है। वह इस प्रकार है सबसे थोड़े अप्रथमसमयमनुष्य हैं, क्योंकि ये श्रेणी के असंख्येयभागप्रमाण है / उनसे अप्रथमसमयनै रयिक असंख्येयगुण हैं, क्योंकि ये अंगुलमात्र क्षेत्र की प्रदेशराशि के प्रथमवर्गमूल में द्वितीयवर्गमूल का गुणा करने पर जितनी प्रदेशराशि होती है, उतनी श्रेणियों में जितने आकाशप्रदेश हैं, उनके बराबर वे हैं। उनसे अप्रथमसमयदेव असंख्येयगुण हैं, क्योंकि व्यन्तर ज्योतिष्कदेव भी अतिप्रभूत हैं / उनसे अप्रथमसमय तिर्यंच अनन्तगुण हैं, क्योंकि वनस्पतिकाय अनन्त हैं। तीसरा अल्पबहुत्व प्रत्येक नरथिकादिकों में प्रथमसमय और अप्रथमसमय को लेकर है। वह इस प्रकार है---सबसे थोड़े प्रथमसमयनैरयिक हैं, क्योंकि एकसमय में संख्यातीत उत्पन्न होने पर भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org