________________ अष्टविधाख्या सप्तम प्रतिपत्ति] [151 गुण, उनसे अप्रथमसमयनैरयिक असंख्येयगुण, उनसे अप्रथमसमयदेव असंख्येयगुण, उनसे अप्रथमसमय तिर्यक्योनिक अनन्तगुण। इस प्रकार आठ तरह के संसारसमापन्नक जीवों का वर्णन हुआ / अष्टविधप्रतिपत्ति नामक सातवी प्रतिपत्ति पूर्ण हुई। विवेचन-इस सप्तमप्रतिपत्ति में आठ प्रकार के संसारसमापन्नक जीवों का कथन है / नारक, तिर्यग्योनिक, मनुष्य और देव-इन चार के प्रथमसमय और अप्रथमसमय के रूप में दो-दो भेद किये गये हैं, इस प्रकार पाठ भेदों में सम्पूर्ण संसारसमापन्नक जीवों का समावेश किया है। जो अपने जन्म के प्रथमसमय में वर्तमान हैं, वे प्रथमसमयनारक आदि हैं। प्रथमसमय को छोड़कर शेष सब समयों में जो वर्तमान हैं, वे अप्रथमसमयनारक आदि हैं। इन आठों भेदों को लेकर स्थिति, संचिट्ठणा, अन्तर और अल्पबहुत्व का विचार किया गया है। प्रथमसमयनैरयिक को जघन्य और उत्कृष्ट भवस्थिति एक समय की है, क्योंकि द्वितीय आदि समयों में वह प्रथमसमय वाला नहीं रहता। अप्रथमसमयनैरयिक की जघन्यस्थिति एक समय कम दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट एकसमय कम तेतीस सागरोपम की है। तिर्यग्योनिकों में प्रथमसमय वालों की जघन्य उत्कर्ष स्थिति एक समय की और अप्रथमसमय वालों की जघन्य स्थिति एक समय कम क्षुल्लकभव और उत्कर्ष से एकसमय कम तीन पल्योपम है। इसी प्रकार मनुष्यों के विषय में सियंचों के समान और देवों के सम्बन्ध में नारकों के समान भवस्थिति जाननी चाहिए। ___ संचिढणा--देवों और नारकों की जो भवस्थिति है, वही उनकी कायस्थिति (संचिटणा) है, क्योंकि देव और नारक मरकर पुनः देव और नारक नहीं होते। प्रथमसमयतिर्यग्योनिकों की जघन्य संचिट्ठणा एकसमय की है और उत्कृष्ट से भी एक समय की है। क्योंकि तदनन्तर वह प्रथमसमय विशेषण वाला नहीं रहता / अप्रथमसमयतिर्यग्योनिक की जघन्य संचिट्ठणा एक समय कम क्षुल्लकभवग्रहण है, क्योंकि प्रथमसमय में वह अप्रथमसमय विशेषण वाला नहीं है, अत: वह प्रथमसमय कम करके कहा गया है। उत्कृष्ट से वनस्पतिकाल अर्थात् अनन्तकाल कहना चाहिए, जिसका स्पष्टीकरण पूर्व में कालमार्गणा और क्षेत्रमार्गणा से किया गया है। प्रथमसमयमनुष्यों की जघन्य, उत्कृष्ट संचिट्ठणा एकसमय की है और अप्रथमसमयमनुष्यों की जघन्य एकसमय कम क्षुल्लक भवग्रहण और उत्कृष्ट से पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम में एक समय कम संचिट्ठणा है / पूर्वकोटि आयुष्क वाले लगातार सात भव और आठवें भव में देवकुरु आदि में उत्पन्न होने की अपेक्षा से उक्त संचिठ्ठणाकाल जानना चाहिए। अन्तरद्वार-प्रथमसमयनरथिक का अन्तर जघन्य से अन्तमुहर्त अधिक दसहजार वर्ष है। यह दसहजार वर्ष की स्थिति वाले नैरयिक के नरक से निकलकर अन्तर्मुहुर्त कालपर्यन्त अन्यत्र रहकर फिर नरक में उत्पन्न होने की अपेक्षा से है / उत्कर्ष से अनन्तकाल है, जो नरक से निकलने के पश्चात् वनस्पति में अनन्तकाल तक उत्पन्न होने के पश्चात् पुनः नरक में उत्पन्न होने की अपेक्षा से है। अप्रथमसमयनरयिक का जघन्य अन्तर समयाधिक अन्तमुहर्त है। यह नरक से निकल कर तिर्यक्गर्भ में या मनुष्यगर्भ में अन्तर्मुहूर्त काल तक रहकर पुन: नरक में उत्पन्न होने की अपेक्षा से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org