Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 660
________________ अष्टविधाख्या सप्तम प्रतिपत्ति] [149 प्रथमसमयतिर्यग्योनिक की स्थिति जघन्य एक समय और उत्कृष्ट भी एक समय है। अप्रथमसमयतिर्यग्योनिक की जघन्य स्थिति एक समय कम क्षुल्लकभवग्रहण' है और उत्कृष्ट स्थिति एक समय कम तीन पल्योपम है / इसी प्रकार मनुष्यों की स्थिति तिर्यग्योनिकों के समान और देवों की स्थिति ने रयिकों के समान कहनी चाहिए। _नैरयिक और देवों की जो स्थिति है, वही दोनों प्रकार के (प्रथमसमय-अप्रथमसमय) नैरयिकों और देवों को कायस्थिति (संचिट्ठणा) है। भगवन् ! प्रथमसमयतिर्यग्योनिक उसी रूप में कितने समय तक रह सकता है ? गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कर्ष से भी एक समय तक रह सकता है। अप्रथमसमयतिर्यग्योनिक जघन्य से एक समय कम क्षुल्लक भव और उत्कृष्ट से वनस्पतिकाल तक रह सकता है। प्रथमसमयमनुष्य जघन्य और उत्कृष्ट से एक समय तक और अप्रथमसमयमनुष्य जघन्य से एक समय कम क्षुल्लकभवग्रहण पर्यन्त और उत्कर्ष से एक समय कम पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम तक रह सकता है। 227. अंतरं- पढमसमयणेरइयस्स जहन्नेणं दसवाससहस्साइं अंतोमुत्तमम्भहियाई, उक्कोसेणं वणस्सइकालो / अपढमसमयणेरइयस्स जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं वणस्सइकालो। पढमसमयतिरिक्खजोणिए जहण्णेणं दो खुड्डागभवग्गहणाई समय-उणाई, उक्कोसेणं वणस्सइकालो / अपढमसमयतिरिक्खजोणियस्स जहणणं खुड्डागभवग्गहणं समयाहियं उक्कोसेणं सागरोबमसयप्रहत्तं सातिरेगं / पढमसमयमणुस्सस्स जहण्णेणं दो खुड्डाई भवग्गहणाई समय-ऊणाई, उक्कोसेणं वणस्सइकालो। अपढमसमयमणुस्सस्स जहण्णेणं खुड्डागं भवग्गहणं समयाहियं, उक्कोसेणं वणस्सइकालो। देवाणं जहा णेरइयाणं जहणेणं दसवाससहस्साई अंतोमुत्तमब्भहियाई, उक्कोसेणं वणस्सइकालो। अपढमसमयदेवाणं जहणणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं वणस्सइकालो। अप्पाबहुयं-एतेसि णं भंते ! पढमसमयणेरइयाणं जाव पढमसमयदेवाण य कयरे कयरहितो अप्पा वा बहुया वा० ? गोयमा ! सव्वत्थोवा पढमसमयमणुस्सा, पढमसमयणेरइया प्रसंखेज्जगुणा, पढमसमयदेवा असंखेज्जगुणा, पढमसमयतिरिक्खजोणिया असंखेज्जगुणा, अपढमसमयनेरइयाणं जाव अपढमसमयदेवाणं एवं चेव अप्पाबहुयं, णरि अपडमसमयतिरिक्खजोणिया अणंतगुणा / एतेसि पढमसमयनेरइयाणं अपढमसमयणेरइयाण य कयरे कयरेहितो अप्पा० ? सव्वत्थोवा पढमसमयणरइया, अपतमसमयनरइया असखज्जगणा। एवं सम्वे / 1. 256 पावलिकाओं का क्षुल्लकभव होता है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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