________________ दशविधाख्या नवम प्रतिपत्ति] [159 अप्रथमसमयपंचेन्द्रिय जघन्य से समयोन क्षुल्लकभव और उत्कर्ष से साधिक हजार सागरोपम तक रहता है, क्योंकि देवादिभवों में लगातार परिभ्रमण करते हुए उत्कर्ष से इतने काल तक ही पंचेन्द्रिय के रूप में रह सकता है। ___ अन्तरद्वार-प्रथमसमयएकेन्द्रिय का अन्तर जघन्य से समयोन दो क्षुल्लकभव है / वे क्षुल्लकभव द्वीन्द्रियादि भवग्रहण के व्यवधान से पुनः एकेन्द्रिय में उत्पन्न होने की अपेक्षा से हैं / जैसे कि एक भव तो प्रथमसमय कम एकेन्द्रिय का क्षुल्लकभव और दूसरा भव द्वोन्द्रियादि का सम्पूर्ण क्षुल्लकभव, इस तरह समयोन दो क्षुल्लकभव जानने चाहिए / उत्कर्ष से वनस्पतिकाल-अनन्तकाल है, जिसका स्पष्टीकरण पूर्व में बताया जा चुका है। इतने काल तक वह अप्रथमसमय है , प्रथमसमय नहीं। क्योंकि द्वीन्द्रियादि में क्षुल्लकभव के रूप में रहकर फिर एकेन्द्रिय रूप में उत्पन्न होने पर प्रथमसमय में प्रथमसमयएकेन्द्रिय कहा जाता है। अतः उत्कृष्ट अन्तर वनस्पतिकाल कहा गया है। अप्रथमसमयएकेन्द्रिय का जघन्य अन्तर समयाधिक क्षुल्लकभवग्रहण है / उस एकेन्द्रियभवगत चरमसमय को अधिक अप्रथमसमय मानकर उसमें मरकर द्वीन्द्रियादिक्षल्लकभवग्रहण का व्यवधान होने पर फिर एकेन्द्रिय रूप में उत्पन्न होने का प्रथमसमय बीत जाने पर प्राप्त होता है / इतने काल का अप्रथमसमयएकेन्द्रिय का अन्तर प्राप्त होता है। उत्कर्ष से संख्येयवर्ष अधिक दो हजार सागरोपम का अन्तर हो सकता है / द्वीन्द्रियादि भवभ्रमण लगातार इतने काल तक ही सम्भव है। प्रथमसमयद्वीन्द्रिय का जघन्य अन्तर समयोन दो क्षुल्लकभवग्रहण है। एक तो प्रथमसमयहीन द्वीन्द्रिय का क्षुल्लकभव और दूसरा सम्पूर्ण एकेन्द्रिय-त्रीन्द्रियादि का कोई भी क्षुल्लकभवग्रहण है / इसी प्रकार प्रथमसमयत्रीन्द्रिय, प्रथमसमयचतरिन्द्रिय और प्रथमसमयपंचेन्द्रियों का अन्तर भी जानना चाहिए। ___अप्रथमसमयद्वीन्द्रिय का जघन्य अन्तर समयाधिक क्षुल्लकभवग्रहण है। वह अन्यत्र क्षुल्लक / भव पर्यन्त रहकर पुनः द्वीन्द्रिय के रूप में उत्पन्न होने का प्रथमसमय बीत जाने पर प्राप्त होता है / उत्कर्ष से अनन्तकाल का अन्तर है / यह अनन्तकाल पूर्वकत् अनन्त उत्सर्पिणी-प्रवसर्पिणियों का होता है प्रादि कथन करना चाहिए। द्वीन्द्रियभव से निकल कर इतने काल तक वनस्पति में रहकर पुन: द्वीन्द्रिय रूप में उत्पन्न होने से प्रथमसमय बीत जाने के पश्चात यह अन्तर प्राप्त होता अप्रथमसमय त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय का जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर समझना चाहिए। अल्पबहुत्वद्वार-पहला अल्पबहुत्व प्रथमसमयिकों को लेकर कहा गया है। वह इस प्रकार है सबसे थोड़े प्रथमसमयपंचेन्द्रिय हैं, क्योंकि वे एक समय में थोड़े ही उत्पन्न होते हैं। उनसे प्रथमसमयचतुरिन्द्रिय विशेषाधिक हैं, क्योंकि वे एकसमय में प्रभूत उत्पन्न होते हैं / उनसे प्रथमसमयश्रीन्द्रिय विशेषाधिक हैं, क्योंकि वे एकसमय में प्रभूततर उत्पन्न होते हैं। उनसे प्रथमसमयद्वीन्द्रिय विशेषाधिक हैं, क्योंकि वे एक समय में प्रभूततम उत्पन्न होते हैं / उनसे प्रथमसमयएकेन्द्रिय विशेषाधिक हैं / यहां जो द्वीन्द्रियादि से निकलकर एकेन्द्रिय रूप में उत्पन्न होते हैं और प्रथमसमय में वर्तमान हैं वे ही प्रथमसमयएकेन्द्रिय जानना चाहिए, अन्य नहीं / वे प्रथमसमयद्वीन्द्रियों से विशेषाधिक ही हैं, असंख्येय या अनन्तगुण नहीं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org