Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ अनधिक्षेत्रादि प्ररूपण] [111 गौतम ! मनोज्ञ शब्द यावत् मनोज्ञ स्पर्शों द्वारा सुख का अनुभव करते हुए विचरते हैं। यह कथन |वेयकदेवों तक समझना चाहिए। अनुत्तरोपपातिकदेव अनुत्तर (सर्वश्रेष्ठ) शब्दजन्य यावत् अनुत्तर स्पर्शजन्य सुखों का अनुभव करते हैं। भगवन् ! सौधर्म-ईशान देवों की ऋद्धि कैसी है ? गौतम ! वे महान् ऋद्धिवाले, महाद्युतिवाले यावत् महाप्रभावशाली ऋद्धि से युक्त हैं / अच्युतविमान पर्यन्त ऐसा कहना चाहिए। ग्रैवेयकविमानों और अनुत्तरविमानों में सब देव महान् ऋद्धिवाले यावत् महाप्रभावशाली हैं। वहां कोई इन्द्र नहीं है / सब "अहमिन्द्र" हैं, वहां छोटे-बड़े का भेद नहीं है / हे आयुष्मन् श्रमण ! वे देव अहमिन्द्र कहलाते हैं। 204. सोहम्मीसाणा वेवा केरिसया विभूसाए पण्णत्ता? गोयमा ! कुविहा पण्णत्ता, तं जहा-वेउध्वियसरीरा य, अवेउन्विय-सरोरा य / तत्थ णं जे से देउब्जियसरीरा ते हारविराइयवच्छा जाव दस दिसाम्रो उज्जोवेमाणा पभासेमाणा जाव पडिरूवा / तत्थ णं जे से अवे उब्वियसरीरा ते णं आभरणवसणरहिआ पगहत्था विभूसाए पण्णत्ता।। सोहम्मीसाणेसु णं भंते ! कप्पेसु देवीमो केरिसयाओ विभूसाए पण्णताओ? गोयमा ! दुविहाओ पण्णत्ताओ तं जहा-वेउब्वियसरीराओय प्रवेउब्वियसरीरानो य / तत्थ णं जाओ वेउम्वियसरीरामो तानो सुवण्णसद्दालाओ सुवण्णसहालाई वत्थाई पवर परिहियानो चंदाणणाम्रो चंदविलासिणीओ चदद्धसमणिडालाप्रो सिंगारागारचारुवेसाओ संगय जाव पासाइनो जाव पडिरूवाओ। तत्थ णं जाओ अवेउब्वियसरीरामो ताओ णं आभरणवसणरहियाओ पगइत्थानो विभूसाए पण्णत्ताओ। सेसेसु देवीप्रो पत्थि जाव अच्चओ। गेवेज्जगदेवा केरिसया विभूसाए पण्णता? गोयमा ! प्राभरणवसणरहिया एवं देवी त्थि भाणियव्वं / पगइत्था विभूसाए पण्णता एवं अणुत्तरावि / सोहम्मोसाणेसु देवा केरिसए कामभोगे पच्चणुभवमाणा विहरंति ? गोयमा ! इट्ठा सद्दा इट्ठा रूवा जाव फासा / एवं जाव गेवेज्जा / अणुत्तरोववाइयाणं अणुत्तरा सदा जाव अणुत्तरा फासा / ठिई सम्वेसि भाणियन्वा / अणंतरं चयंति, चइत्ता जे जहिं गच्छति तं भाणियव्वं / 204. भगवन् ! सौधर्म-ईशान कल्प के देव विभूषा की दृष्टि से कैसे हैं ? गौतम वे देव दो प्रकार के हैं. वैक्रियशरीर वाले और अवैक्रियशरीर वाले। उनमें जो वैक्रियशरीर (उत्तरवैक्रिय) वाले हैं वे हारों से सुशोभित वक्षस्थल वाले यावत् दसों दिशाओं को उद्योतित करने वाले, प्रभासित करने वाले यावत् प्रतिरूप हैं / जो अवैक्रियशरीर (भवधारणीयशरीर) वाले हैं वे आभरण और वस्त्रों से रहित हैं और स्वाभाविक विभूषण से सम्पन्न हैं। भगवन् ! सौधर्म-ईशान कल्पों में देवियां विभूषा की दृष्टि से कैसी हैं ? गौतम ! वे दो प्रकार की हैं-उत्तरवैक्रियशरीर वाली और अवैक्रियशरीर (भवधारणीयशरीर) वाली। इनमें जो उत्तरवैक्रियशरीर वाली वे स्वर्ण के नूपुरादि प्राभूषणों की ध्वनि से युक्त हैं तथा स्वर्ण की बजती किकिणियों वाले वस्त्रों को तथा उद्भट वेश को पहनी हुई हैं, चन्द्र के समान उनका मुखमण्डल है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org