________________ खड्विधाख्या पंचम प्रतिपति] [129 निकलते हैं और नये उत्पन्न होते हैं।' __ इसी प्रकार सात सूत्र अपर्याप्त सूक्ष्मों के और सात सूत्र पर्याप्त सूक्ष्मों के कहने चाहिए / सवंत्र जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त मात्र ही है। 215. सुहमे णं भंते ! सुहमति कालमो केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं असंखेज्जकालं जाव असंखेज्जा लोया। सम्वेसि पुढविकालो जाव सुहमणिमओयस्स पुढविकालो। अपज्जत्तगाणं सदेसि जहष्णेणवि उक्कोसेणवि अंतोमुहुत्तं; एवं पज्जतगाणवि सम्वेसि जहण्णेवि उक्कोसेणवि अंतोमुहत्तं / 215. भगवन् ! सूक्ष्म, सूक्ष्मरूप में कितने काल तक रहता है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट असंख्यातकाल तक रहता है। यह असंख्यातकाल असंख्येय उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी रूप है तथा असंख्येय लोककाश के प्रदेशों के अपहारकाल के तुल्य है / इसी तरह सूक्ष्म पृथ्वी काय अप्काय तेजस्काय वायुकाय वनस्पतिकाय की संचिट्ठणा का काल पृथ्वीकाल अर्थात् असंख्येयकाल है यावत् सूक्ष्म-निगोद की कायस्थिति भी पृथ्वीकाल है। सब अपर्याप्त सूक्ष्मों की काय स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त प्रमाण हो है। 216. सुहमस्स णं भंते ! केवइयं कालं अंतरं होइ ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं; कालो असंखेज्जायो उस्सप्पिणी-ओसप्पिणीओ, खेत्तनो अंगुलस्स असंखेज्जइभागो। सुहुमवणस्सइकाइयस्स सुहमणिगोदस्सवि जाव असंखेज्जइ भागो। पुढविकाइयादीणं वणस्सइकालो। एवं अपज्जत्तगाणं पज्जत्तगाणवि / 216. भगवन् ! सूक्ष्म, सूक्ष्म से निकलने के बाद फिर कितने समय में सूक्ष्मरूप से पैदा होता है ? यह अन्तराल कितना है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से असंख्येयकाल है / यह असंख्येय काल असंख्यात उत्सर्पिणी-प्रवपिणी काल रूप है तथा क्षेत्र से अंगुलासंख्येय भाग क्षेत्र में जितने आकाशप्रदेश हैं उन्हें प्रति समय एक-एक का अपहार करने पर जितने काल में वे निलेप हो जायें, वह काल असंख्येयकाल समझना चाहिए / (सूक्ष्म पृथ्वीकाय यावत् सूक्ष्म वायुकायिकों का अन्तर उत्कर्ष से वनस्पतिकाल-अनन्तकाल है, वनस्पति में जन्म लेने की अपेक्षा से।) सूक्ष्म वनस्पतिकायिक और सूक्ष्म-निगोद का अन्तर असंख्येय काल (पृथ्वीकाल) है / सूक्ष्म अपर्याप्तों और सूक्ष्म पर्याप्तों का अन्तर औषिकसूत्र के समान है। 1. गोला य असंखेज्जा, असंखनिगोदो य गोलो भणियो। एक्किक्कमि निगोए अणंत जीवा मुणेयवा // // एगो असंखभागो वट्टइ उव्वट्टणोववायम्मि / एग णिगोदे णिच्चं एवं सेसेसु वि स एव // 2 // अंतोमुहत्तमेत्तं ठिई निगोयाण जंति णिविद्रा।। पल्लटंति निगोया तम्हा अंतोमुहृत्तेणं // 3 // -वृत्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org