________________ 132] [जीवाजीवाभिगमसूत्र 219. भगवन् ! बादर जीव, बादर के रूप में कितने काल तक रहता है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से असंख्यातकाल / यह असंख्यातकाल असंख्यात उत्सर्पिणीअवसपिणियों के बराबर है तथा क्षेत्र से अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्र के आकाशप्रदेशों का प्रतिसमय एक-एक के मान से अपहार करने पर जितने समय में वे निर्लेप हो जाएं, उतने काल के बराबर हैं / बादर पृथ्वीकायिक, बादर अपकायिक, बादर तेजस्कायिक, बादर वायुका यिक, प्रत्येकशरीर बादर वनस्पतिकायिक और बादर निगोद की जघन्य कायस्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से सत्तर कोडाकोडी सागरोपम की है। बादर वनस्पति की कायस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट असंख्येयकाल है, जो कालमार्गणा से असंख्येय उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी तुल्य है और क्षेत्रमार्गणा से अंगुलासंख्येयभाग के प्राकाशप्रदेशों का प्रतिसमय एक-एक के मान से अपहार करने पर लगने वाले काल के बराबर है / सामान्य निगोद की कायस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल है / वह अनन्तकाल कालमार्गणा से अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी प्रमाण है और क्षेत्रमार्गणा से ढाई पुद्गलपरावर्त तुल्य है। बादर सकायसूत्र में जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्येयवर्ष अधिक दो हजार सागरोपम की कायस्थिति कहनी चाहिए। बादर अपर्याप्तों की कायस्थिति के दसों सूत्रों में जघन्य और उत्कृष्ट से सर्वत्र अन्तर्मुहूर्त कहना चाहिये। बादर पर्याप्त के प्रोधिकसूत्र में कायस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक सागरोपम शतपृथक्त्व है। (इसके बाद अवश्य बादर रहते हुए भी पर्याप्तलब्धि नहीं रहती।) बादर पृथ्वीकायिक पर्याप्तसूत्र में जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यात हजार वर्ष कहने चाहिए। (इसके बाद बादरत्व होते हुए भी पर्याप्तलब्धि नहीं रहती।) इसी प्रकार अप्कायसूत्रों में भी कहना चाहिए / तेजस्कायसूत्र में जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट संख्यात अहोरात्र कहने चाहिए। वायुकायिक, सामान्य बादरवनस्पति, प्रत्येक बादर वनस्पतिकाय के सूत्र बादर पर्याप्त पृथ्वीकायवत् (जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट संख्यात हजार वर्ष) कहने चाहिए / सामान्य निगोद-पर्याप्तसूत्र में जघन्य, उत्कर्ष से अन्तमुहर्त ; बादर सकायपर्याप्तसूत्र में जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक सागरोपम शतपृथक्त्व कहना चाहिए। (इतनी स्थिति चारों गतियों में भ्रमण करने से घटित होती है)। अन्तरद्वार 220. अंतरं बायरस्स, बायरवणस्सइस्स, णिओदस्स, बादरणिओवस्स एतेसि चउण्हवि पुढविकालो जाव असंखज्जा लोया, सेसाणं वणस्सइकालो। एवं पज्जत्तगाणं अपज्जत्तगाणवि अंतरं। आहे य बायरतरु अोधनिगोदे बायरणिओए य / कालमसंखेज अंतरं सेसाण वणस्सइकालो // 1 // 220. औधिक बादर, बादर वनस्पति, निगोद और बादर निगोद, इन चारों का अन्तर पृथ्वीकाल है, अर्थात् असंख्यातकाल है। यह असंख्यातकाल असंख्येय उत्सर्पिणी-अवपि णी के बराबर है (कालमार्गणा से) तथा क्षेत्रमार्गणा से असंख्येय लोकाकाश के प्रदेशों का प्रतिसमय एक-एक 1. सूत्रोक्त गाथाएं संक्षिप्त होने से उनके भावों को टीकानुसार स्पष्ट किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org