Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 646
________________ षड्विधाख्या पंचम प्रतिपत्ति] [135 तेज तो मनुष्यक्षेत्र में ही है, जबकि बादर वनस्पतिकाय तीनों लोकों में है। अतः क्षेत्र के असंख्येयगुण ने से बादर तेजस्कायिकों से प्रत्येकशरीर बादर वनस्पतिकायिक असंख्येयगुण हैं। उनसे बादरनिगोद असंख्येयगुण है, क्योंकि अत्यन्त सूक्ष्म अवगाहना होने से तथा प्रायः जल में सर्वत्र होने से-- पनक, सेवाल आदि जल में अवश्यंभावी है, अतः असंख्येयगुण घटित होते हैं। बादर निगोद से बादर पृथ्वीकायिक असंख्येयगुण हैं, क्योंकि वे आठों पृथ्वियों, सब विमानों, सब भवनों और पर्वतादि में हैं। उनसे बादर अपकायिक असंख्येयगुण हैं, क्योंकि समुद्रों में जल की प्रचुरता है / उनसे बादर वायुकायिक असंख्येयगुण हैं, क्योंकि पोलारों में भी वायु संभव है। उनसे बादर वनस्पतिकायिक अनन्तगण हैं, क्योंकि प्रत्येक बादर निगोद में अनन्त जीव हैं। उनसे सामान्य बादर विशेषाधिक हैं, क्योंकि बादर त्रसकायिक आदि का भी उनमें समावेश होता है। (2) दूसरा अल्पबहुत्व इन षट्कायों के अपर्याप्तकों के सम्बन्ध में है। सबसे थोड़े बादर त्रसकायिक अपर्याप्त (युक्ति पहले बता दी है), उनसे बादर तेजस्कायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण हैं, क्योंकि वे असंख्येय लोकाकाशप्रमाण हैं। इस तरह प्रागुक्तकम से ही अल्पबहुत्व समझ लेना चाहिए। (3) तीसरा अल्पबहत्व षटकायों के पर्याप्तों से सम्बन्धित है। सबसे थोड़े बादर तेजस्कायिक हैं, क्योंकि ये प्रावलिका के समयों के वर्ग को कुछ समय न्यून पावलिका समयों से गुणित करने पर जितने समय होते हैं, उनके बराबर हैं। उनसे बादर असकायिक पर्याप्त असंख्येयगुण हैं, क्योंकि वे प्रतर में अंगुल के संख्येयभागमात्र जितने खण्ड होते हैं, उनके बराबर हैं, उनसे प्रत्येकशरीरी वनस्पतिकायिक पर्याप्त असंख्येयगुण हैं, क्योंकि वे प्रतर में अंगुल के असंख्येयभागमात्र जितने खण्ड होते हैं, उनके तुल्य हैं। उनसे बादरनिगोद पर्याप्तक असंख्येयगुण हैं, क्योंकि वे अत्यन्त सूक्ष्म अवगाहना वाले तथा जलाशयों में सर्वत्र होते हैं। उनसे बादर पृथ्वाकायिक पयाप्त असख्येय गुण है, क्योकि क्योंकि अतिप्रभूत संख्येय प्रतरांगुलासंख्येयभाग-खण्डप्रमाण है। उनसे बादर अप्कायिक पर्याप्त असंख्येयगुण हैं, क्योंकि वे अतिप्रभूततरासंख्येयप्रतरांगुलासंख्येयभागप्रमाण हैं। उनसे बादर वायुकायिक पर्याप्त असंख्येय गुण हैं, क्योंकि धनीकृत लोक के असंख्येय प्रतरों के संख्यातवें भागवर्ती क्षेत्र के आकाशप्रदेशों के बराबर हैं। उनसे बादर वनस्पति पर्याप्त अनन्तगुण हैं, क्योंकि प्रति बादरनिगोद में अनन्तजीव हैं। उनसे सामान्य बादर पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, क्योंकि बादर तेजस्कायिक आदि सब पर्याप्तों का इनमें समावेश है। (4) चौथा अल्पबहत्व इनके प्रत्येक के पर्याप्तों और अपर्याप्तों को लेकर कहा गया है। सर्वत्र पर्याप्तों से अपर्याप्त असंख्येयगुण कहना चाहिए / बादर पृथ्वीकाय से लेकर बादर त्रसकाय तक सर्वत्र 1. कहिं णं भंते ! बादरवणस्सइकाउयाणं पज्जत्तमाणं ठाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! सट्टाणेणं सत्तसु घणोदहीसु सत्तसु घणोदधिवलएसु, अहोलोए पायालेसु, भवणपत्थडेसु उड्ढलोए कप्पेसु विमाणावलियासु विमाणपत्थडेसु तिरियलोए अगडेसु तलाएसु नदीसु दहेसु वावीसु पुक्खरिणी गुजालियासु सरेसु सरपंतियासु उज्झरेसु चिल्ललेसु पल्ललेसु वप्पिणेसु दीवेसु समुद्देसु सव्वेसु चेव जलासएसु जलट्ठाणेसु एत्थ णं बायरवणस्सइकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पणत्ता। तथा जत्थेव बायरवणस्सइकाइयाण पज्जत्तमाणं ठाणा पण्णत्ता तत्थेव बायरवणस्सइकाइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता। -प्रज्ञापना स्थानपद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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