Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

Previous | Next

Page 651
________________ 140] [जीवाजीवाभिगमसूत्र 222. भगवन् ! निगोद कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! निगोद दो प्रकार के हैं—निगोद और निगोदजीव ! भगवन् ! निगोद कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! दो प्रकार के हैं- सूक्ष्मनिगोद और बादरनिगोद / भगवन् ! सूक्ष्मनिगोद कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! दो प्रकार के हैं पर्याप्तक और अपर्याप्तक / बादर निगोद भी दो प्रकार के हैं-पर्याप्तक और अपर्याप्तक / भगवन् ! निगोदजीव कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! दो प्रकार के हैं--सूक्ष्म निगोदजीव और बादर-निगोदजीव / सूक्ष्म निगोदजीव दो प्रकार के हैं--पर्याप्तक और अपर्याप्तक / बादरनिगोदजीव भी दो प्रकार के है-पर्याप्तक और अपर्याप्तक / विवेचन--निगोद जैन सिद्धान्त का पारिभाषिक शब्द है, जिसका अर्थ है अनन्त जीवों का प्राधार अथवा आश्रय। वैसे सामान्यतया निगोद सूक्ष्म और साधारण वनस्पति रूप है, तथापि इसकी अलग-सी पहचान है। इसलिए इसके दो प्रकार कहे गये हैं --निगोद और निगोदजीव / निगोद अनन्त जीवों का अाधारभूत शरीर है और निगोदजीव एक ही औदारिकशरीर में रहे हुए भिन्न-भिन्न तैजस-कार्मणशरीर वाले अनन्त जीवात्मक है।' पागम में कहा है-यह सारा लोक सूक्ष्मनिगोदों से अंजनचूर्ण से परिपूर्ण समुद्गक की तरह ठसाठस भरा हुआ है। निगोदों से परिपूर्ण इस लोक में असंख्येय निगोद वृत्ताकार और बृहत्प्रमाण होने से “गोलक" कहे जाते हैं / ऐसे असंख्येय गोले हैं और एक-एक गोले में असंख्येय निगोद हैं और एक-एक निगोद में अनन्त जीव हैं। निगोद और निगोदजीव दोनों दो-दो प्रकार के हैं--सूक्ष्मनिगोद और बादरनिगोद / सूक्ष्मनिगोद सारे लोक में रहे हुए हैं और बादरनिगोद मूल, कंद आदि रूप हैं। ये दोनों सूक्ष्म और बादर निगोदजीव दो-दो प्रकार के हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त / 223. णिगोदा गं भंते ! दव्वट्ठयाए कि संखेज्जा असंखेज्जा अणंता? गोयमा! गो संखेज्जा, असंखेज्जा, णो अणंता / एवं पज्जत्तगावि अपज्जत्तगावि / ___ सुहमणिगोदा णं भंते ! दव्वद्र्याए कि संखेज्जा असंखेज्जा प्रणता ? गोयमा ! णो संखेज्जा, असंखेजा, णो श्रणंता / एवं पज्जतगावि अपज्जत्तगावि / एवं बायरावि पज्जत्तगावि अपज्जत्तगावि णो संखेज्जा, असंखज्जा, णो अणंता / णिमोदजीवा णं भंते ! दवट्ठयाए कि संखेज्जा, असंखज्जा, अणता? गोयमा ! नो संखेज्जा, नो असंखेज्जा, अगंता। एवं पज्जत्तगावि अपज्जत्तगावि / एवं सुहमणिगोदजीवावि पज्जत्तगावि अपज्जत्तगावि / बायरणिगोदजीवावि पज्जत्तगावि अपज्जत्तगावि / / णिगोदा णं भंते ! पदेसट्टयाए कि संखेज्जा पुच्छा ? गोयमा ! नो संखेज्जा, नो असंखेज्जा, अणंता। एवं पज्जतगावि अपज्जत्तगावि / एवं सुहमणिगोदावि पज्जत्तगावि अपज्जत्तगावि / पएसट्ठयाए सव्वे अणंता / एवं बायरनिगोदावि पज्जतगावि अपज्जत्तगावि / पएसटुयाए सम्वे अणता। 1. तत्र निगोदा जीवाश्रयविशेषा, निगोदजीवा विभिन्न तेजसकार्मणाजीवा एव / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 649 650 651 652 653 654 655 656 657 658 659 660 661 662 663 664 665 666 667 668 669 670 671 672 673 674 675 676 677 678 679 680 681 682 683 684 685 686 687 688 689 690 691 692 693 694 695 696 697 698 699 700 701 702 703 704 705 706 707 708 709 710 711 712 713 714 715 716 717 718 719 720 721 722 723 724 725 726 727 728 729 730 731 732 733 734 735 736