Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 642
________________ षविधाख्या पंचम प्रतिपत्ति] [131 तेउस्स तिपिणराईदिया, बायरवाउस्स तिष्णि वाससहस्साई, बायरवणस्सइकाइयस्स दसवाससहस्साई। एवं पत्तेयसरीरवायरस्सवि। णिप्रोदस्स जहन्ने गवि उक्कोसेणवि अंतोमुत्तं / एवं बायरणिगोदस्सवि, अपज्जत्तगाणं सम्वेसि अंतोमुहत्तं, पज्जत्तगाणं उक्कोसिया ठिई अंतोमुहुत्तूणा कायव्वा सव्वेसि / 218. भगवन् ! बादर की स्थिति कितनी कही गई है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की स्थिति है। बादर त्रसकाय की भी यही स्थिति है / बादर पृथ्वीकाय की बावीस हजार वर्ष की, बादर अपकायिकों की सात हजार वर्ष की, बादर तेजस्काय की तीन अहोरात्र की, बादर वायुकाय की तीन हजार वर्ष की और बादर वनस्पति की दस हजार वर्ष की उत्कृष्ट स्थिति है। इसी तरहप्रत्येकशरीर बादर की भी यही स्थिति है। निगोद की जघन्य से भी और उत्कृष्ट से भी अन्तर्मुहूर्त की ही स्थिति है। बादर निगोद की भी यही स्थिति है / सब अपर्याप्त बादरों की स्थिति अन्तर्मुहूर्त है और सब पर्याप्तों की उत्कृष्ट स्थिति उनकी कुल स्थिति में से अन्तर्मुहूर्त कम करके कहना चाहिए। बादर को कायस्थिति 219. बायरे णं भंते ! बायरेत्ति कालमो केचिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं असंखेज्जं काल-असंखेज्जाओ उस्सप्पिणी-ओसप्पिजीमो कालओ, खेत्तओ अंगुलस्स असंखेज्जइभागो। बायरपुढविकाइय-प्राउ-तेउ-बाउ० पत्तयसरीरबादरवणस्सइकाइयस्स बायर णिओदस्स (बादरवणस्सइस्स जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कासेणं असंखेज्ज कालं, असंखेज्जाओ उस्सप्पिणी-ओसप्पिणीनो कालओ, खेत्तनो अंगुलस्स असंखेज्जइभागो। पत्तेगसरीरबादरवणस्सइकाइयस्स बायरणिमोदस्स पुढवीव / बायरणियोदस्स पं जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं प्रणतं कालं--प्रणता उस्सप्पिणी-योसप्पिणीओ कालो खेत्तओ अड्डाइज्जा पोग्गलपरियट्टा।) एतेसि जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं सत्तरसागरोवम कोडाकोडीओ। संखातीयाओ समाओ अंगुल भागे तहा असंखज्जा। प्रोहे य बायर तरु-अणुबंधो सेसनो वोच्छं // 1 // उस्सप्पिणि-ओसप्पिणी अड्ढाइय पोग्गलाण परियट्ठा। बेउदधिसहस्सा खलु साधिया होति तसकाए // 2 // अंतोमुत्तकालो होइ अपज्जत्तगाण सम्वेसि / पज्जत्तबायरस्स य बायरतसकाइयस्सावि // 3 // एतेसि ठिई सागरोवम सयपुहत्तसाइरेगं / तेउस्स संख राइंदिया दुविहणिओदे मुहत्तमद्धं तु। सेसाणं संखेज्जा वाससहस्सा य सम्वेसि // 4 // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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