Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 639
________________ 128] [जीवाजीवाभिगमसूत्र लोकाकाशप्रदेशप्रमाण हैं। उनसे पृथ्वी, अप, वायु के अपर्याप्तक क्रम से विशेषाधिक हैं, क्योंकि वे प्रभूत-प्रभूततर-प्रभूततम असंख्येय लोकाकाशप्रदेश-राशिप्रमाण हैं / उनसे तेजस्कायिक पर्याप्त संख्येयगुण हैं, क्योंकि सूक्ष्मों में अपर्याप्तों से पर्याप्त संख्येयगुण हैं / उनसे पृथ्वी, अप, वायु के पर्याप्त जीव क्रम से विशेषाधिक हैं। उनसे वनस्पतिकायिक अपर्याप्त अनन्तगुण हैं, क्योंकि वे अनन्त लोकाकाशप्रदेश-राशिप्रमाण हैं। उनसे वनस्पतिकायिक पर्याप्त संख्येयगुण हैं, क्योंकि सूक्ष्मों में अपर्याप्तकों से पर्याप्त संख्येयगुण हैं / सूक्ष्म जीव सर्व बहु हैं, उनकी अपेक्षा से यह अल्पबहुत्व है। 214. सुहुमस्स णं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णता ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणवि अंतोमुहुतं / एवं जाव सुहमणिनीयस्स / एवं अपज्जत्तगाणवि पज्जत्तगाणवि जहण्णेणवि उक्कोसेणवि अंतोमुहुत्तं / / 214. भगवन् ! सूक्ष्म जीवों की स्थिति कितनी है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से भी अन्तर्मुहूर्त / इसी प्रकार सूक्ष्मनिगोदपर्यन्त कहना चाहिए / इस प्रकार सूक्ष्मों के पर्याप्त और अपर्याप्तकों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण ही है। विवेचन--प्रस्तुत सूत्र में सूक्ष्म-सामान्य की स्थिति बताई गई है। सूक्ष्म जीव दो प्रकार के हैं-निगोदरूप और अनिगोदरूप / दोनों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है / जघन्य अन्तर्मुहूर्त से उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त विशेषाधिक समझना चाहिए, अन्यथा उत्कृष्ट कहने का कोई अर्थ नहीं रह जाता है / इस प्रकार सूक्ष्मपृथ्वीकाय, सूक्ष्म अप्काय, सूक्ष्म तेजस्काय, सूक्ष्म वायुकाय, सूक्ष्म वनस्पतिकाय और सूक्ष्म निगोद सम्बन्धी छह सूत्र कहने चाहिए। यहाँ यह शंका की जा सकती है कि सूक्ष्म वनस्पति निगोद ही है; सूक्ष्म वनस्पति से उसका भी बोध हो जाता है, तो फिर अलग से निगोदसत्र क्यों कहा गया है ? इसका सा सूक्ष्म वनस्पति तो जीव रूप है और सूक्ष्म निगोद अनन्त जीवों के आधारभूत शरीर रूप है / अतएव भिन्न सूत्र की सार्थकता है / कहा गया है- “यह सारा लोक सूक्ष्म निगोदों से अंजनचूर्ण से पूर्ण समुद्गक (पेटी) की तरह सब ओर से ठसाठस भरा हुआ है। निगोदों से परिपूर्ण इस लोक में असंख्येय निगोद वृत्ताकार और बृहत्प्रमाण होने से "गोलक' कहे जाते हैं / निगोद का अर्थ है अनन्तजीवों का एक शरीर / ऐसे असंख्येय गोलक हैं और एक-एक गोलक में असंख्येय निगोद हैं और एक-एक निगोद में अनन्त जीव हैं। एक निगोद में जो अनन्त जीव हैं उनका असंख्यातवां भाग प्रतिसमय उसमें से निकलता है और दूसरा असंख्यातवां भाग वहां उत्पन्न होता है। प्रत्येक समय यह उद्वर्तन और उत्पत्ति चलती रहती है। जैसे एक निगोद में यह उद्वर्तन और उपपात का क्रम चलता रहता है, वैसे ही सर्वलोकव्यापी निगोदों में यह उद्वर्तन और उपपात क्रिया प्रतिसमय चलती रहती है। अतएव सब निगोदों और निगोद जीवों की स्थिति अन्तर्मुहूर्त मात्र कही है / अतः सब निगोद प्रतिसमय उद्वर्तन एवं उपपात द्वारा अन्तर्मुहूर्त मात्र समय में परिवर्तित हो जाते हैं, लेकिन वे शून्य नहीं होते। केवल पुराने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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