Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ सामान्यतया भवस्थिति आदि का वर्णन] [115 एएसि णं भंते ! रइयाणं जाव देवाणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सम्वत्थोवा मणुस्सा, णेरइया असंखेज्जगुणा, देवा असंखेज्जगुणा, तिरिया अणंतगुणा / सेत्तं चउव्यिहा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता। 206. भगवन् ! नैरयिकों की स्थिति कितनी है ? गौतम ! जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की है। इस प्रकार सबके लिए प्रश्न कर लेना चाहिए / तिर्यंचयोनिक की जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की है। मनुष्यों को भी यही है। देवों की स्थिति नैरयिकों के समान जाननी चाहिए। देव और नारक की जो स्थिति है, वही उनको संचिट्टणा है अर्थात् कास्थिति है / (उसी. उसो भव में उत्पन्न होने के काल को कायस्थिति कहते हैं / ) तिर्यंच की कायस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट बनस्पतिकाल है। भंते ! मनुष्य, मनुष्य के रूप में कितने काल तक रह सकता है ? गोतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम तक रह सकता है। नैरयिक, मनुष्य और देवों का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है। तियंचयोनियों का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट कुछ अधिक दो सौ से नौ सो सागरोपम का होता है। भगवन् ! इन नैरयिकों यावत् देवों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े मनुष्य हैं, उनसे नैरयिक असंख्यगुण हैं, उनसे देव असंख्यगुण हैं और उनसे तिर्यंच अनन्तगुण हैं। इस प्रकार चार प्रकार के संसारसमापनक जीवों का वर्णन पूरा होता है। विवेचन-देवों के वर्णन के पश्चात् नारक, तिर्यच, मनुष्य और देवों की समुच्चय रूप से स्थिति, संचिट्ठना (कायस्थिति), अन्तर और अल्पबहुत्व का कथन प्रस्तुत सूत्र में किया गया है / नारकों की जघन्यस्थिति दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की है / जघन्यस्थिति रत्नप्रभा नरक के प्रथम प्रस्तर की अपेक्षा से और उत्कृष्टस्थिति सप्तम नरकपृथ्वी की अपेक्षा से समझनी चाहिए / तिर्यग्योनिकों की जघन्यस्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की है। यह देवकुरु आदि की अपेक्षा से है। मनष्यों की भी जघन्य अन्तमहतं और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की स्थिति है। देवों को जघन्य दस हजार वर्ष-भवनपति और व्यन्तर देवों की अपेक्षा से और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम विजयादि विमान की अपेक्षा से कही गई है / यह भवस्थिति बताई है / संचिट्ठणा का अर्थ कायस्थिति है / अर्थात् कोई जीव उसी-उसी भव में जितने काल तक रह सकता है / नारकों और देवों की भवस्थिति ही उनकी कायस्थिति है / क्योंकि यह नियम है कि देव मरकर अनन्तर भव में देव नहीं होता है, नारक भी मरकर अनन्तर भव में नारक नहीं होता।' 1. "नो नेरइएसु उववज्जइ”, “नो देव देवेसु उववज्जइ" इति वचनात् / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org