Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

Previous | Next

Page 627
________________ 116] [जीवाजीवाभिगमसूत्र इसलिए कहा गया है कि देवों और नारकों को जो भवस्थिति है, वही उनकी संचिट्ठणा (कायस्थिति) तिर्यग्योनिकों की संचिगुणा जघन्य अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि तदनन्तर मरकर वे मनुष्यादि में उत्पन्न हो सकते हैं / उत्कृष्ट से उनकी संचिट्ठणा अनन्तकाल है, क्योंकि वनस्पति में अनन्तकाल तक जन्ममरण हो सकता है। अनन्तकाल का अर्थ यहां वनस्पतिकाल से है। बनस्पतिकाल का प्रमाण इस प्रकार है-काल से अनन्त उत्सपिणियां--प्रवसपिणियां प्रमाण, क्षेत्र से अनन्त लोक और असंख्यात पुद्गलपरावर्त प्रमाण / ये पुद्गलपरावर्त आवलिका के असंख्यातवें भाग में जितने समय हैं, उतने समझने चाहिए। मनुष्य की संचिट्ठणा जघन्य से अन्तर्मुहूर्त / तदनन्तर मरकर तिर्यग् आदि में उत्पन्न हो सकता है / उत्कृष्ट संचिट्ठणा पृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम है / महाविदेह आदि में सात मनुष्यभव (पूर्वकोटि प्रायु के) और पाठवां भव देवकुरु आदि में उत्पन्न होने की अपेक्षा से समझना चाहिए / अन्तरद्वार-कोई जीव एक भव से मरकर फिर जितने काल के बाद उसी भव में प्राता हैवह अन्तर कहलाता है। नैरयिक का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है / नरक से निकलकर अन्तमुहूर्त पर्यन्त तिर्यंच या मनुष्य भव में रहकर पुनः नारक बनने की अपेक्षा से है। कोई जीव नरक से निकलकर गर्भज मनुष्य के रूप में उत्पन्न हुआ, सब पर्याप्तियों से पूर्ण हुया और विशिष्ट संज्ञान से युक्त होकर वैक्रियलब्धिमान होता हुआ राज्यादि का अभिलाषी, परचक्री का उपद्रव जानकर अपनी शक्ति के प्रभाव से चतुरंगिणी सेना विकुक्ति कर संग्राम करता हुआ महारौद्रध्यान ध्याता हुआ गर्भ में ही मरकर नरक में उत्पन्न होता है—इस अपेक्षा से मनुष्यभव में पैदा होकर जघन्य अन्तर्मुहूर्त में वह नारक जीव फिर नरक में उत्पन्न होता है / नरक से निकलकर तन्दुलमत्स्य के रूप में उत्पन्न होकर महारौद्रध्यान वाला बनकर अन्तमुहर्त जीकर फिर नरक में पैदा होता है-इस अपेक्षा से तिर्यक्भव करके पुनः नारक उत्पन्न होने का जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त समझना चाहिए / उत्कृष्ट अन्तर वनस्पति में अनन्तकाल जन्म-मरण के पश्चात् नरक में उत्पन्न होने पर घटित होता है। तिर्यग्योनिकों का जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है। कोई तिर्यंच मरकर मनुष्यभव में अन्तर्मुहूर्त रहकर फिर तिर्यच रूप में उत्पन्न हया, इस अपेक्षा से है। उत्कृष्ट अन्तर सागरोपमशतपृथक्त्व से कुछ अधिक है। दो सौ सागरोपम से नौ सौ सागरोपम तक निरन्तर देव, नारक और मनुष्य भव में भ्रमण करते रहने पर घटित होता है। मनुष्य का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट प्रन्तर वनस्पतिकाल है। मनुष्यभव से निकलकर अन्तमुहूर्त काल तक तिर्यग्भव में रहकर फिर मनुष्य बनने पर जघन्य अन्तर घटित होता है / उत्कृष्ट अन्तर वनस्पतिकाल स्पष्ट ही है / देवों का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है / कोई जीव देवभव से च्यवकर गर्भज मनुष्य के रूप में पैदा हमा, सब पर्याप्तियों से पूर्ण हा। विशिष्ट संज्ञान वाला हमा। तथाविध श्रमण या श्रमणोपासक के पास धार्मिक आर्यवचनों को सुनकर धर्मध्यान ध्याता हुआ गर्भ में ही भरकर देवों में उत्पन्न हुआ, इस अपेक्षा से जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त काल घटित होता है। उत्कृष्ट अन्तर वनस्पतिकाल का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648 649 650 651 652 653 654 655 656 657 658 659 660 661 662 663 664 665 666 667 668 669 670 671 672 673 674 675 676 677 678 679 680 681 682 683 684 685 686 687 688 689 690 691 692 693 694 695 696 697 698 699 700 701 702 703 704 705 706 707 708 709 710 711 712 713 714 715 716 717 718 719 720 721 722 723 724 725 726 727 728 729 730 731 732 733 734 735 736