________________ षडविधाख्या पंचम प्रतिपत्ति तसकाइए णं भंते ! तसकाइएत्ति कालमो केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहणणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं दो सागरोवमसहस्साई संखेज्जवासमन्भहियाई। अपज्जत्तगाणं छण्हवि जहणणधि उक्कोसेणवि अंतोमुहुतं / पज्जतगाणं वाससहस्सा संखा पुढविदगाणिलतरुणपज्जता / तेऊ राइदिसंखा तस सागरसयपुत्ताई // 1 // [ पज्जत्तगाणवि सव्वेसि एवं / ] पुढविकाइयस्स णं भंते ! केवइयं कालं अंतर होइ ? गोयमा जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं वणप्फइकाले। एवं प्राउ-तेउ-वाउकाइयाणं वणस्सइकालो। तसकाइयाणवि। वणस्सइकाइयस्स पुढविकाइयकालो। एवं अपज्जत्तगाणवि वणस्सइकालो, वणस्सईणं पुढविकालो। पज्जत्तगाणवि एवं चेव वणस्सइकालो, पज्जत्तवणस्सईणं पुढविकालो। 212. भगवन् ! पृथ्वीकाय, पृथ्वीकाय के रूप में कितने काल तक रह सकता है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट असंख्येय काल यावत् असंख्येय लोकप्रमाण आकाशखण्डों का निर्लेपनाकाल / इसी प्रकार यावत् अप्काय, तेजस्काय और वायुकाय की संचिट्ठणा जाननी चाहिए / वनस्पतिकाय की संचिटणा अनन्तकाल है यावत् प्रावलिका के असंख्यातवें भाग में जितने समय हैं, उतने पुद्गलपरावर्तकाल तक। ___ असकाय की कायस्थिति (संचिटणा) जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यातवर्ष अधिक दो हजार सागरोपम है। छहों अपर्याप्तों की कायस्थिति जघन्य भी अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त है। पर्याप्तों में प्रथ्वीकाय की उत्कृष्ट कायस्थिति संख्यात हजार वर्ष है। यही अप्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय पर्याप्तों की है / तेजस्काय पर्याप्तक की कायस्थिति संख्यात रातदिन की है, त्रसकाय पर्याप्त को कायस्थिति साधिक सागरोपमशतपृथक्त्व है। __ भगवन् ! पृथ्वीकाय का अन्तर कितना है ? गौतम! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से वनस्पतिकाल है / इसी प्रकार अप्काय, तेजस्काय और वायुकाय का अन्तर वनस्पतिकाल है / असकायिकों का अन्तर भी वनस्पतिकाल है। वनस्पतिकाय का अन्तर पृथ्वीकायिक कालप्रमाण (असंख्येय काल) है। इसी प्रकार अपर्याप्तकों का अन्तरकाल वनस्पतिकाल है / अपर्याप्त वनस्पति का अन्तर पृथ्वीकाल है / पर्याप्तकों का अन्तर वनस्पतिकाल है / पर्याप्त वनस्पति का अन्तर पृथ्वीकाल है / विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में पृथ्वीकायिक यावत् त्रसकाय की कायस्थिति ( संचिटणा) और अन्तर का निरूपण किया गया है / संचिट्ठणा या कायस्थिति का अर्थ है कि वह जीव उस रूप में लगातार जितने समय तक रह सकता है और अन्तर का अर्थ है कि वह जीव उस रूप से निकलकर फिर जितने समय के बाद फिर उस रूप में आता है। प्रस्तुत सूत्र में इन दो द्वारों का निरूपण है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org