Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 625
________________ 114] [जीवाजीवाभिगमसूत्र हाँ, गौतम! अनेकवार अथवा अनन्तबार उत्पन्न हो चुके हैं। शेष कल्पों में ऐसा ही कहना चाहिए, किन्तु देवी के रूप में उत्पन्न होना नहीं कहना चाहिए (क्योंकि सौधर्म-ईशान से प्रागे के विमानों में देवियां नहीं होती) 1 ग्रैवेयक विमानों तक ऐसा कहना चाहिए / अनुत्तरोपपातिक दिमानों में पूर्ववत् कहना चाहिये, किन्तु देव और देवीरूप में नहीं कहना चाहिए। यहां देवों का कथन पूर्ण हुआ। विवेचन-यहां प्रश्न किया गया है कि सौधर्म देवलोक के बत्तीस लाख विमानों में से प्रत्येक में क्या सब प्राणी, भूत, जीव और सत्व पृथ्वी रूप में, देव, देवी और भंडोपकरण के रूप में पहले उत्पन्न हो चुके हैं ? (द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय को प्राण में सम्मिलित किया है, वनस्पति को भूत में, पंचेन्द्रियों को जीव में और शेष पृथ्वी-अप-तेज-वायु को सत्व में शामिल किया गया है। उत्तर में कहा गया है- अनेकबार अथवा अनन्तबार उत्पन्न हो चुके हैं। सांव्यवहारिक राशि के अन्तर्गत जीव प्रायः सर्वस्थानों में अनन्तबार उत्पन्न हुए हैं / यहाँ पर अनेक प्रतियों में “पुढविकाइयत्ताए जाव वणस्स इकाइयत्ताए" पाठ उपलब्ध होता है। परन्तु वृत्तिकार के अनुसार यह संगत नहीं है / क्योंकि वहां तेजस्काय का अभाव है / वृत्तिकार के अनुसार "पृथ्वीकाइयतया देवतया देवीतया" इतना ही उल्लेख संगत है / आसन, शयन यावत् भण्डोपकरण आदि पृथ्वीकायिक जीव में सम्मिलित हैं। सौधर्म-ईशानकल्प तक ही देवियां हैं, अतएव अागे के विमानों में देवीरूप से उत्पन्न होना नहीं कहना चाहिए / वेयक विमानों तक तो देवीरूप में उत्पन्न होने का निषेध किया गया है / अनुत्तरविमानों में देवीरूप और देवरूप दोनों का निषेध है / देवियां तो वहां होती ही नहीं / देवों का निषेध इसलिए किया गया है कि विजयादि चार विमानों में तो उत्कर्ष से दो बार, सर्वार्थसिद्ध विमान में केवल एक ही बार जीव जा सकता है, अनन्तबार नहीं / अनन्तबार न जाने की दृष्टि से ही निषेध समझना चाहिए / यहां देवों का वर्णन समाप्त होता है / सामान्यतया भवस्थिति आदि का वर्णन 206. नेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिती पण्णता? गोयमा ! जहन्नेणं दसवाससहस्साई उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई, एवं सम्वेसि पुच्छा। तिरिक्खजोणियाणं जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं तिण्णि पलिनोवमाइं एवं मणुस्साणवि / देवाणं जहा रइयाणं / देव-गेरइयाणं जा चेव ठिती सा चेव संचिट्ठणा / तिरिक्खजोणियस्स जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो। मणुस्से णं भंते ! मणुस्सेति कालओ केवच्चिर होइ ? गोयमा ! जहण्णणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं तिन्नि पलिग्रोवमाई पुवकोडि पुहुत्तमन्भहियाई। रइयमणुस्सदेवाणं अंतरं जहनेणं अंतोमुत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो। तिरिक्खजोणियस्स अंतरं जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं सागरोपमसयपुहत्तसाइरेगं / 1. प्राणा द्वित्रिचतुः प्रोक्ताः भूताश्च तरवः स्मृताः / जीवा: पंचेन्द्रिया ज्ञेयाः शेषाः सत्वा उदीरिता / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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