________________ अवधिक्षेत्र प्रमाण] [113 देवों के नाम जघन्यस्थिति उस्कृष्टस्थिति प्रथम ग्रैवेयक द्वितीय ग्रेवेयक तृतीय अवेयक चतुर्थ |वेयक पंचम ग्रैबेयक षष्ठ प्रैवेयक सप्तम ग्रेवेयक अष्टम ग्रैवेयक नवम ग्रेवेयक विजय अनुत्तर विमान वेजयंत अनुत्तर विमान जयंत अनुत्तर विमान अपराजित अनुत्तर विमान सर्वार्थसिद्ध अनुत्तर विमान 22 सागरोपम 23 सागरोपम 24 सागरोपम 25 सागरोपम 26 सागरोपम 27 सागरोपम 28 सागरोपम 29 सागरोपम 30 सागरोपम 31 सागरोपम 31 सागरोपम 31 सागरोपम 31 सागरोपम अजघन्योत्कर्ष 23 सागरोपम 24 सागरोपम 25 सागरोपम 26 सागरोपम 27 सागरोपम 28 सागरोपम 29 सागरोपम 30 सागरोपम 31 सागरोपम 32 सागरोपम 32 सागरोपम 32 सागरोपम 32 सागरोपम 33 सागरोपम उद्वर्तनाद्वार-सौधर्म देवलोक के देव बादर पर्याप्त पृथ्वीकाय अप्काय और वनस्पतिकाय में, संख्यात वर्ष की आयु वाले पर्याप्त गर्भज तियंच पंचेन्द्रिय और गर्भज मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं / ईशानदेव भी इन्हीं में उत्पन्न होते हैं। सनत्कुमार से लेकर सहस्रार पर्यन्त के देव संख्यात वर्ष की पायुवाले पर्याप्त गर्भज तिर्यंच और मनुष्यों में ही उत्पन्न होते हैं, ये एकेन्द्रियों में उत्पन्न नहीं होते। आनत से लगाकर अनुत्तरोपपातिक देव तिर्यंच पंचेन्द्रियों में भी उत्पन्न नहीं होते, केवल संख्यात वर्ष की आयु वाले गर्भज मनुष्यों में ही उत्पन्न होते हैं / 205. सोहम्मीसाणेसु भंते ! कप्पेसु सव्वपाणा सयभूया जाव सत्ता पुढविकाइयत्ताए। देवत्ताए देवित्ताए आसणसयण जाव भंडोवगरणत्ताए उववण्णपुव्वा ? हंता, गोयमा ! असई अदुवा अणंतखुत्तो / सेसेसु कप्पेसु एवं चेव नवरं नो चेव णं देवित्ताए जाव गेवेज्जगा / अणुत्तरोववाइएसुवि एवं गो चेव णं देवत्ताए देवित्ताए / सेत्तं देवा। 205. भगवन् ! सौधर्म-ईशानकल्पों में सब प्राणी, सब भूत, सब जीव और सब सत्व पृथिवीकाय के रूप में, देव के रूप में, देवी के रूप में, प्रासन-शयन यावत् भण्डोपकरण के रूप में पूर्व में उत्पन्न हो चुके हैं क्या? 1. ,'जाव वणस्सइकाइयत्ताए" पाठ कई प्रतियों में है, परन्तु वृत्तिकार ने उसे उचित नहीं माना है। क्योंकि वहां तेजस्काय संभव ही नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org