Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 620
________________ अवधिक्षेत्रादि प्ररूपण]] [109 सक्कीसाणा पढम दोच्चं च सणंकुमारमाहिंदा / तच्चं च बंभलंतक सुक्कसहस्सारगा चउत्थि // 1 // प्राणयपाणयकप्पे देवा पासंति पंचमि पृढवीं। तं चेव आरणच्चय ओहिनाणेण पासंति // 2 // छट्टि हेटिममझिमगेवेज्जा सतमि च उवरिल्ला / संभिण्णलोगनालिं पासंति अणुत्तरा देवा / / 3 / / 202. भगवन् ! सौधर्म-ईशान कल्प के देव अवधिज्ञान के द्वारा कितने क्षेत्र को जानते हैं-देखते हैं ? गौतम ! जघन्यतः अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्र को और उत्कृष्ट से नीची दिशा में रत्नप्रभापृथ्वी तक, ऊर्ध्व दिशा में अपने-अपने विमानों के ऊपरी भाग ध्वजा-पताका तक और तिरछोदिशा में असख्यात द्वीप-समुद्रों को जानते-देखते हैं। (इस विषय को तीन गाथाओं में कहा है-) शक्र और ईशान प्रथम रत्नप्रभा नरकपृथ्वी के चरमान्त तक, सनत्कुमार और माहेन्द्र दूसरी पृथ्वी शर्कराप्रभा के चरमान्त तक, ब्रह्म और लांतक तीसरी पृथ्वी तक, शुक्र और सहस्रार चौथी पृथ्वी तक, प्राणत-प्राणत-पारण-अच्यूत कल्प के देव पांचवीं पृथ्वी तक अवधिज्ञान के द्वारा जानते-देखते हैं / अधस्तनप्रैवेयक, मध्यमवेयक देव छठी नरक पृथ्वी के चरमान्त तक देखते हैं और उपरितनग्रैवेयक देव सातवीं नरकपृथ्वी तक देखते हैं। अनुत्तरविमानवासी देव सम्पूर्ण चौदह रज्जू प्रमाण लोकनाली को अवधिज्ञान के द्वारा जानते-देखते हैं। विवेचन यहां सौधर्म-ईशान कल्प के देवों का अवधिज्ञान जघन्यतः अंगुल का असंख्यातवां भाग प्रमाण क्षेत्र बताया है। यहां ऐसी शंका होती है कि अंगुल का असंख्यातवां भागप्रमाण क्षेत्र वाला जघन्य अवधिज्ञान तो मनुष्य और तिर्यचों में ही होता है। देवों में तो मध्यम अवधिज्ञान होता है। तो यहां सौधर्म ईशान में जघन्य अवधिज्ञान कैसे कहा गया है ? इसका समाधान इस प्रकार है कि यहां जिस जघन्य अवधिज्ञान का देवों में होना बताया है, वह उन सौधर्मादि देवों के उपपातकाल में पारभविक अवधिज्ञान को लेकर बतलाया गया है। तद्भवज अवधिज्ञान को लेकर नहीं।' प्रज्ञापना में उत्कृष्ट अवधिज्ञान को लेकर जो कथन किया गया है-वही यहां निर्दिष्ट है। ऊपर मूल में दी गई तीन गाथाओं और उनके अर्थ से वह स्पष्ट ही है। 203. सोहम्मीसाणेसु णं भंते ! देवाणं कइ समुग्घाया पण्णत्ता ? गोयमा ! पंच समुग्घाया पण्णता, तं जहा---वेयणासमुग्घाए, कसायसमुग्घाए, मारणंतियसमुग्घाए, वेउव्वियसमुग्याए, तेजससमुग्धाए / एवं जाव अच्चुए। गेवेज्जाणं आदिल्ला तिण्णिसमुग्घाया पणत्ता। - सोहम्मीसाणदेवा भंते ! केरिसयं खुहपिवासं पच्चणुभवमाणा विहरंति ? गोयमा ! पत्थि खुहपिवासं पच्चणुभवमाणा विहरंति जाव अणुत्तरोषवाइया। 1. वेमाणियाणमंगुलभागमसंखं जहन्नो ओही। उववाए परभवितो तभवप्रो होइ तो पच्छा / / 1 // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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