Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ तृतीय प्रतिपत्ति: गोतीर्य-प्रतिपादन] 173. जइ णं भंते ! लवणसमुद्दे दो जोयणसयसहस्साई चक्कवालविक्खंभेणं पण्णरस जोयणसयसहस्साइं एकासीइं च सहस्साई सयं इगुयालं किंचिविसेसूणा परिक्खेवेणं एगं जोयणसहस्सं उम्वेहेणं सोलस जोयणसहस्साई उस्सेहेणं सत्तरस जोयणसहस्साई सम्वग्गेणं पण्णत्ते, कम्हा णं भंते ! लवणसमुद्दे जंबुद्दोवं दोवं नो उवीलेति नो उप्पीलीलेइ नो चेव णं एक्कोदगं करेइ ? गोयमा ! जंबुद्दीवे णं दीवे भरहेरवएसु वासेसु अरहंत चक्कट्टि बलदेवा वासुदेवा चारणा विज्जाधरा समणा समणीओ सावया साधियाओ मणुया पगइभद्दया पगइविणीया पगइउवसंता पगइपयण-कोह-माण-माया-लोभा मिउमदवसंपन्ना अल्लोणा भद्दगा विणीया, तेसिणं पणिहाए लवणसमुद्दे जंबुद्दीवं दीवं नो उवोलेइ नो उप्पीलेइ नो चेव णं एगोदगं करेइ। गंगासिंधुरत्तारत्तवईसु सलिलासु देवयानो महिड्ढीयाओ जाव पलिओषट्टिईया परिवसंति, तेसि णं पणिहाय लवणसमुद्दे जाव नो चेव णं एगोदगं करेइ / चुल्लहिमवंतसिहरेसु वासहरपव्वएसु देवा महिड्ढिया तेसि णं पणिहाय हेमवतेरण्णवएसु वासेसु मणुया पगइभद्दगा०, रोहितंस-सुवण्णकूल-रूप्पकूलासु सलिलासु देवयाओ महिट्टियाओ तासि पणिहाए. सद्दावइवियडावइवट्टवेयड्डपब्वएसु देवा महिडिया जाव पलिप्रोवमट्टिईया परिवसंति, महाहिमवंतरुप्पिसु वासहरपब्वएसु देवा महिड्डिया जाव पलिओवमट्टिइया, हरियासरम्भयवासेसु मण्या पगईभद्दगा, गंधावइमालवंतपरियाएसु बट्टवेयड्डपम्वएसु देवा महिड्डिया० निसहनीलवंतेसु वासधरपब्वएसु देवा महिड्डिया० सम्वाओ दहदेवयानो भाणियव्वाओ, पउमदहतिगिच्छकेसरिदहावसाणेसु देवा महिड्डियाओ तासि पणिहाए० पुट्यविदेहावर विदेहेसु वासेसु अरहंतचक्कट्टिबलदेववासुदेवा चारणा विज्जाहरा समणा समणीओ सावगा सावियाओ मणुया पगइभद्दया तेसि पणिहाए लवण 0, सीयासीतोदगासु सलिलासु देवया महिड्डिया० देवकुरुउत्तरकुरुसु मणुया पगइभद्दगा० मंदरे पन्चए देवया महिड्डिया. पन्नाससयसहस्सा जोयणाणं भवे अणूणाई। लवणसमुद्दास्सेयं जोयणसंखाए घणगणियं // 3 // यहां यह शंका होती है कि लवणसमुद्र सब जगह सत्रह हजार योजन प्रमाण नहीं है, मध्यभाग में तो उसका विस्तार दस हजार योजन है। फिर यह धनगणित कैसे संगत होता है। यह शंका सत्य है, किन्तु जब लवणशिखा के ऊपर दोनों बेदिकान्तों के ऊपर सीधी डोरी डाली जाती है तो जो अपान्तराल में जलशून्य क्षेत्र बनता है वह भी करणगति अनुसार सजल मान लिया जाता है, इस विषय में मेरुपर्वत का उदाहरण है। वह सर्वत्र एकादशभाग परिहानिरूप कहा जाता है परन्तु सर्वत्र इतनी हानि नहीं है। कहीं कितनी है, कहीं कितनी है। केवल मूल से लेकर शिखर तक डोरी डालने पर अपान्तराल में जो प्राकाश है वह सब मेरु का गिना जाता है / ऐसा मानकर गणितज्ञों ने सर्वत्र एकादश-परिभागहानि का कथन किया है। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने भी विशेषणवती ग्रन्थ में यही बात कही है-"एवं उभयवेइयंताप्रो सोलस'-सहस्सुस्सेहस्सकन्नगईए जं लवणसमुद्दाभव जलसुन्नपि खेतं तस्स गणियं / जहा मंदरपव्ययस्स एक्कारसभागपरिहाणी कन्नगईए आगासस्स वि तदाभवंतिकाउं भणिया तहा लवणसमुहस्स वि।" इसका अर्थ पूर्व विवरण से स्पष्ट ही है। -वृत्तिकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org