________________ समयक्षेत्र (मनुष्यक्षेत्र) का वर्णन एवं पुग्वे तुडिए अड्डे अववे हहुकए उप्पले पउमे लिणे अच्छिनिउरे अउए पउए णउए चूलिया सीसपहेलिया जाव य सीसपहेलियंगेइ वा सोसपहेलियाइ वा पलिओवमेइ वा सागरोवमेइ वा अवसप्पिणीइ वा ओसप्पिणीइ वा तावं च णं अस्सिं लोए पवुच्चइ। 69789 जावं च णं बादरे विज्जकारे बायरे थणियसद्दे तावं च णं अस्सि लोए पवुच्चइ, जावं च णं बहवे पोराला बलाहका संसेयंति संमुच्छंति वासं वासंति तावं च णं अस्सि लोए पवुच्चइ, जावं च णं बायरे तेउकाए तावं च णं अस्सि लोए पयुच्चइ, जावं च णं आगराई वा नदीउद वा निहीइ वा तावं च णं अस्सि लोएत्ति पवुच्च; जावं च णं अगडाइ वा पईत्ति वा तावं च णं अस्सि लोए. जावं च णं चंदोवरागाइ वा सूरोवरागाइ वा चंदपरिएसाइ वा सूरपरिएसाइ वा पडिचंदाइ वा पडिसूराइ वा इंदधणूइ वा उदगमच्छेइ वा कपिहसियाइ वा तावं च णं अस्सि लोएत्ति पवुच्चइ / जावं च णं चंदिमसूरियगहणक्खत्ततारारूवाणं अभिगमण-णिग्गमण-वुडि-णिव्वुड्डि-अणवट्टियसंठाणसंठिई आघविज्ज इ तावं च णं अस्सि लोए पवृच्चइ / / 178. (आ) हे भगवन् ! यह मानुषोत्तरपर्वत क्यों कहलाता है ? गौतम ! मानुषोत्तर पर्वत के अन्दर-अन्दर मनुष्य रहते हैं, इसके ऊपर सुपर्णकुमार देव रहते हैं और इससे बाहर देव रहते हैं। गौतम ! दूसरा कारण यह है कि इस पर्वत के बाहर मनुष्य (अपनी शक्ति से ) न तो कभी गये हैं, न कभी जाते हैं और न कभी जाएंगे, केवल जंघाचारण और विद्याचारण मुनि तथा देवों द्वारा संहरण किये मनुष्य ही इस पर्वत से बाहर जा सकते हैं / इसलिए यह पर्वत मानुषोत्तरपर्वत कहलाता है / ' अथवा हे गौतम ! यह नाम शाश्वत होने से अनिमित्तिक है। जहां तक यह मानुषोत्तरपर्वत है वहीं तक यह मनुष्य-लोक है (अर्थात् मनुष्यलोक में हो वर्ष, वर्षधर, गृह आदि हैं इससे बाहर नहीं / आगे सर्वत्र ऐसा ही समझना चाहिए।) जहां तक भरतादि क्षेत्र और वर्षधर पर्वत हैं वहां तक मनुष्यलोक है। जहां तक घर या दुकान आदि हैं वहां तक मनुष्यलोक है। जहां तक ग्राम यावत् राजधानी है, वहां तक मनुष्यलोक है। जहां तक अरिहन्त, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, प्रतिवासुदेव, जंघाचारण मुनि, विद्याचारण मुनि, श्रमण, श्रमणियां, श्रावक, श्राविकाएं और प्रकृति से भद्र विनीत मनुष्य हैं, वहां तक मनुष्यलोक है / / जहां तक समय, प्रावलिका, आन-प्राण (श्वासोच्छवास), स्तोक (सात श्वासोच्छ्वास), लव (सात स्तोक), मुहूर्त, दिन, अहोरात्र, पक्ष, मास, ऋतु (दो मास), अयन (छः मास), संवत्सर (वर्ष,) युग (पांच वर्ष), सौ वर्ष, हजार वर्ष, लाख वर्ष, पूर्वांग, पूर्व, त्रुटितांग, त्रुटित, इसी क्रम से अड्ड, अवव, हूहुक, उत्पल, पद्म, नलिन, अर्थनिकुर (अच्छिणेउर), अयुत, प्रयुत, नयुत, चूलिका, शीर्षप्रहेलिका, पल्योपम, सागरोपम, अवसर्पिणी और उत्सपिणी काल है, वहां तक मनुष्यलोक है। जहां तक बादर विद्युत प्रौर बादर स्तनित (मेघगर्जन) है, जहां तक बहुत से उदार-बड़े मेघ उत्पन्न होते हैं, सम्मूछित होते हैं (बनते-बिखरते हैं), वर्षा बरसाते हैं, वहां तक मनुष्यलोक है। जहां तक बादर तेजस्काय (अग्नि) है, वहां तक मनुष्यलोक है। जहां तक खान, नदियां और निधियां हैं, कुए, तालाब आदि हैं, वहां तक मनुष्यलोक है। 1. मनुष्याणामुत्तर:--परः इति मानुषोत्तरः। -वृत्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org