________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र उन सिद्धायतनों में बहुत से भवनपति, वान-व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव चातुर्मासिक प्रतिपदा आदि पर्व दिनों में, सांवत्सरिक उत्सव के दिनों में तथा अन्य बहुत से जिनेश्वर देव के जन्म, दीक्षा, ज्ञानोत्पत्ति और निर्वाण कल्याणकों के अवसर पर देवकार्यों में, देव-मेलों में, देवगोष्ठियों में, देवसम्मेलनों में और देवों के जीतव्यवहार सम्बन्धी प्रयोजनों के लिए एकत्रित होते हैं, सम्मिलित होते हैं और प्रानन्द-विभोर होकर महामहिमाशाली अष्टाह्निका पर्व मनाते हुए सुखपूर्वक विचरते हैं / कैलाश और हरिवाहन नाम के दो महद्धिक यावत् पल्योपम की स्थिति वाले देव वहां रहते हैं। इस कारण हे गौतम ! इस द्वीप का नाम नंदीश्वरद्वीप है। अथवा द्रव्यापेक्षया शाश्वत होने से यह नाम शाश्वत और नित्य है / सदा से चला आ रहा है। यहां सब चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारा संख्यात-संख्यात हैं। 184. नंदीस्सरवरं णं दीवं नंदीसरोदे णाम समुद्दे बट्टे वलयागारसंठाणसंठिए जाव सव्वं तहेव अट्ठो जो खोदोदगस्स जाव सुमणसोमणसभद्दा एस्थ दो देवा महिड्डिया जाव परिवसंति, सेसं तहेव जाव तारग्गं / 184. उक्त नंदीश्वरद्वीप को चारों ओर से घेरे हुए नंदीश्वर नामक समुद्र हैं, जो गोल है एवं वलयकार संस्थित है इत्यादि सब वर्णन पूर्ववत् (क्षोदोदकवत्) कहना चाहिए। विशेषता यह है कि यहां सुमनस और सौमनसभद्र नामक दो महद्धिक देव रहते हैं / शेष सब वर्णन तारागण की संख्या पर्यन्त पूर्ववत् कहना चाहिए। अरुणद्वीप का कथन 185. (अ) नंदीसरोवं समुदं अरुणे णामं दीवे वट्टे वलयागार जाव संपरिक्खित्ताणं चिटुइ / अरुणे णं भंते ! दोवे किं समचक्कवालसंठिए विसमचक्कवालसंठिए ? गोयमा! समचक्कवालसंठिए नो विसमचक्कवालसंठिए / केवइयं समचक्कवालविक्खंभणं संठिए ? संखेज्जाई जोयणसयसहस्साइं चक्कवालविक्खंभेणं संखेज्जाई जोयणसयसहस्साई परिक्खेवेणं पण्णत्ते / पउमवरवेदिया-वणसंड-दारा-दारंतरा तहेव संखेज्जाइं जोयणसयसहस्साइं वारंतरं जाव अट्ठो वावीओ खोदोदगे पडिहत्थाओ उपायपव्ययगा सव्ववइरामया अच्छा; असोग-वीतसोगा य एत्थ दुवे देवा महिड्डिया जाव परिवसंति / से तेण?णं० जाव संखेज्जं सब्वं / 185. (अ) नंदीश्वर नामक समुद्र को चारों ओर से घेरे हुए अरुण नाम का द्वीप है जो गोल है और वलयाकार रूप से संस्थित है। हे भगवन् ! अरुणद्वीप समचक्रवालविष्कंभ वाला है या विषमचक्रवालविष्कभ वाला है ? गौतम ! वह समचक्रवालविष्कंभ वाला है, विषमचक्रवालविष्कंभ वाला नहीं है। भगवन् ! उसका चक्रवालविष्कंभ कितना है ? गौतम ! संख्यात लाख योजन उसका चक्रवालविष्कभ है और संख्यात लाख योजन उसकी परिधि है / पद्मवरवेदिका, वनखण्ड, द्वार, द्वारान्तर भी संख्यात लाख योजन प्रमाण है / इसी द्वीप का ऐसा नाम इस कारण है कि यहां पर बावड़ियां इक्षुरस जैसे पानी से भरी हुई हैं। इसमें उत्पातपर्वत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org