Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 591
________________ 80] [जीवाजोवाभिगमसूत्र भगवन् ! कोई महद्धिक एवं महाप्रभावशाली देव बाह्य पुद्गलों को ग्रहण कर और बालक के शरीर को पहले छेद-भेद कर फिर उसे सांधने में समर्थ है क्या? हां, गौतम ! वह ऐसा करने में समर्थ है। वह ऐसी कुशलता से उसे सांधता है कि उस संधिग्रन्थि को छद्यस्थ न देख सकता है और न जान सकता है / ऐसी सूक्ष्म ग्रन्थि वह होती है / भगवन् ! कोई महद्धिक देव (बाह्य पुद्गलों को ग्रहण किये बिना) पहले बालक को छेदे-भेदे बिना बड़ा या छोटा करने में समर्थ है क्या ? गौतम ! ऐसा नहीं हो सकता। इस प्रकार चारों भंग कहने चाहिए। प्रथम द्वितीय भंगों में बाह्य पुद्गलों का ग्रहण नहीं है और प्रथम भंग में बाल-शरीर का छेदन-भेदन भी नहीं है। द्वितीय भंग में छेदन-भेदन है। तृतीय भंग में बाह्य पुद्गलों का ग्रहण करना और बाल-शरीर का छेदन-भेदन करना नहीं है / चौथे भंग में बाह्य पुद्गलों का ग्रहण भी है और पूर्व में बाल-शरीर का छेदन-भेदन भी है। इस छोटे-बड़े करने की सिद्धि को छद्मस्थ नहीं जान सकता और नहीं देख सकता / ह्रस्वीकरण और दीर्धीकरण की यह विधि बहुत सूक्ष्म होती है। ज्योतिष्क चन्द्र-सूर्याधिकार 191. अस्थि णं भंते ! चंदिमसूरियाणं हिदिपि तारारूवा अणुपि तुल्लावि, समंपि तारारूवा अणुपितुल्लावि, उप्पिपि ताराख्वा प्रणु पि तुल्लावि ? हंता, अस्थि / से केणद्वेणं भंते ! एवं वुच्चइ--अस्थि णं चंदिमसूरियाणं जाव उप्पिंपि तारारूवा अणुपि, तुल्लावि ? गोयमा ! जहा जहा णं तेसि देवाणं तव-णियम-बंभचेर-वासाई उक्कडाई उस्सियाई भवंति तहा तहा णं तेसिं देवाणं एवं पण्णायइ अणुत्ते वा तुल्ले वा। से एएणठेणं गोयमा! अत्थि गं चंदिमसूरियाणं उप्पिपि तारारूवा अणुपि तुल्लावि० / एगमेगस्स णं चंदिम-सूरियस्स, अट्ठासीई च गहा, अट्ठावीसं च होइ नक्खत्ता। एक ससीपरिवारो एतो ताराणं वोच्छामि // 1 // छावठ्ठि सहस्साई नव चेव सयाई पंच सयराई। एक ससोपरिवारो तारागणकोडिकोडीणं // 2 // 191. भगवन् ! चन्द्र और सूर्यों के क्षेत्र की अपेक्षा नीचे रहे हुए जो तारा रूप देव हैं, वे क्या (धुति, वैभव, लेश्या आदि की अपेक्षा) हीन भी हैं और बराबर भी हैं ? चन्द्र-सूर्यों के क्षेत्र की समश्रेणी में रहे हुए तारा रूप देव, चन्द्र-सूर्यों से द्युति आदि में हीन भी हैं और बराबर भी हैं ? तथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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