________________ ज्योतिष्क चन्द्र-सूर्याधिकार] [91 चंदस्स जोइसिदस्स जोइसरण्णो अन्नेसि च बहणं जोइसियाणं देवाण य देवीण य अच्चणिज्जासो जाव पज्जुवासणिज्जाओ। तासि पणिहाय नो पभू चंदे जोइसराया चंदडिसए जाव चंदंसि सीहासणंसि जाव भुजमाणे विहरित्तए / से एएणठेणं गोयमा! नो पभू चंदे जोइसराया चंदवडेंसए विमाणे सभाए सुहम्माए चंदसि सीहासणंसि तुडिएण सद्धि दिव्वाइं भोगभोगाई भुजमाणे विहरित्तए। अत्तरं च णं गोयमा ? पभू चंदे जोइसराया चंदडिसए विमाणे सभाए सुहम्माए चंदेसि सीहासणंसि चहि सामाणियसाहस्सोहिं जाव सोलसहि आयरक्खदेवाणं साहस्सोहिं अन्नेहि बहूहि जोइसिएहि देवेहि देवीहि य सद्धि संपरिवुडे महया हयणट्टगीयवाइयतंतीतलतालतुडियघणमुइंगपडुप्पाइयरवेणं दिव्वाई भोगभोगाइं भुजमाणे विहरित्तए, केवलं परियारतुडिएण सद्धि भोगभोगाई बुद्धिए नो चेव णं मेहुणवत्तियं। 196. (आ) भगवन् ! ज्योतिष्केन्द्र ज्योतिषराज चन्द्र चन्द्रावतंसक विमान में सुधर्मा सभा में चन्द्र नामक सिंहासन पर अपने अन्तःपुर के साथ दिव्य भोगोपभोग भोगने में समर्थ है क्या ? गौतम ! नहीं / वह समर्थ नहीं है। भगवन् ! ऐसा क्यों कहा जाता है कि ज्योतिषराज चन्द्र चन्द्रावतंसक विमान में सुधर्मा सभा में चन्द्र नामक सिंहासन पर अन्त:पुर के साथ दिव्य भोगोषभोग भोगने में समर्थ नहीं है ? गौतम ! ज्योतिष्केन्द्र ज्योतिषराज चन्द्र के चन्द्रावतंसक विमान में सुधर्मा सभा में माणवक चैत्यस्तंभ में वजमय गोल मंजूषानों में बहुत-सी जिनदेव की अस्थियां रखी हुई हैं, जो ज्योतिष्केन्द्र ज्योतिषराज चन्द्र और अन्य बहुत-से ज्योतिषी देवों और देवियों के लिए अर्चनीय यावत् पर्युपासनीय हैं / उनके कारण ज्योतिषराज चन्द्र चन्द्रावतंसक विमान में यावत् चन्द्रसिंहासन पर यावत् भोगोपभोग भोगने में समर्थ नहीं है। इसलिए ऐसा कहा गया है कि ज्योतिषराज चन्द्र चन्द्रावतंसक विमान में सुधर्मा सभा में चन्द्र सिंहासन पर अपने अन्तःपुर के साथ दिव्य भोगोपभोग भोगने में समर्थ नहीं है। गौतम ! दूसरी बात यह है कि ज्योतिषराज चन्द्र चन्द्रावतंसक विमान में सुधर्मा सभा में चन्द्र सिंहासन पर अपने चार हजार सामानिक देवों यावत् सोलह हजार आत्मरक्षक देवों तथा अन्य बहुत से ज्योतिषी देवों और देवियों के साथ घिरा हुआ होकर जोर-जोर से बजाये गये नृत्य में, गीत में, वादित्रों के, तन्त्री के, तल के, ताल के, त्रुटित के, धन के, मृदंग के बजाये जाने से उत्पन्न शब्दों से दिव्य भोगोपभोगों को भोग सकने में समर्थ है। किन्तु अपने अन्तःपुर के साथ मैथुनबुद्धि से भोग भोगने में वह समर्थ नहीं है। 196. (इ) सूरस्स णं भंते ! जोइसिदस्स जोइसरन्नो कइ अग्गम हिसीओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा—सूरप्पभा, प्रायवाभा, अच्चिमाली, पभंकरा / एवं अवसेसं जहा चंदस्स गरि सूरडिसए विमाणे सूरंसि सीहासणंसि तहेब सव्वेसि गहाईणं चत्तारि अग्गमाहिसीओ, तं जहा-विजया वेजयंती जयंती अपराइया तेसि पि तहेव / 196. (इ) भगवन् ! ज्योति केन्द्र ज्योतिषराज सूर्य की कितनी अग्रमहिषियां हैं ? गौतम ! चार अग्रहिषियां हैं, जिनके नाम हैं-सूर्यप्रभा, पातपाभा, अचिमाली और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org