________________ जम्बुद्वीप आदि नामवाले द्वीपों की संख्या] [73 के कूटों के, चुल्लहिमवान आदि के कूटों के, कृत्तिका आदि 28 नक्षत्रों के, चन्द्रों के और सूर्यो के जितने भी नाम हैं, उन नामों वाले द्वीप और समुद्र हैं। ये सब त्रिप्रत्यवतारवाले हैं / इसके बाद देवद्वीप देवोदसमुद्र है, अन्त के स्वयंभूरमणद्वीप और स्वयंभूरमणसमुद्र है। जम्बूद्वीप आदि नामवाले द्वीपों की संख्या 186. (अ) केवइया णं भंते ! जंबुद्दीया दीवा नामधेज्जेहि पण्णत्ता ? गोयमा ! असंखेज्जा जंबुद्दीवा दीवा नामधेज्जेहि पण्णता / केवइया णं भंते ! लवणसमुद्दा समुहा नामधेज्जेहि पण्णता? गोयमा ! असंखेज्जा लवणसमुद्दा नामधेज्जेहिं पण्णत्ता / एवं धायइसंडावि / एवं जाव असंखेज्जा सूरदीवा नामधेज्जेहि य / एगे देवे दीवे पण्णत्ते / एगे देवोदे समुद्दे पण्णते। एगे नागे जक्खे भूए जाव एगे सयंभूरमणे दीवे, एगे सयंभूरमणसमुद्दे णामधेज्जेणं पण्णत्ते। 186. (अ) भगवन् जम्बूद्वीप नाम के कितने द्वीप हैं ? गौतम ! जम्बूद्वीप नाम के असंख्यात द्वीप कहे गये हैं। भगवन् ! लवणसमुद्र नाम के समुद्र कितने कहे गये हैं ? गौतम ! लवणसमुद्र नाम के असंख्यात समुद्र कहे गये हैं। इसी प्रकार धातकीखण्ड नाम के द्वीप भी असंख्यात हैं यावत् सूर्यद्वीप नाम के द्वीप असंख्यात कहे गये हैं। देवद्वीप नामक द्वीप एक ही है / देवोदसमुद्र भी एक ही है। इसी तरह नागद्वीप, यक्षद्वीप, भूतद्वीप, यावत् स्वयंभूरमणद्वीप भी एक ही है। स्वयंभूरमण नामक समुद्र भी एक है। विवेचन-पूर्ववर्ती सूत्र में द्वीप-समुद्रों के क्रम का कथन किया गया है। उसमें अरुणद्वीप से लगाकर सूर्यद्वीप तक त्रिप्रत्यवतार (अरुण, अरुणवर, अरुणवरावभास, इस तरह तीन-तीन) का कथन किया गया है / इसके पश्चात् त्रिप्रत्यवतार नहीं है। सूर्य द्वीप के बाद देवद्वीप देवोदसमुद्र, नागद्वीप नागोदसमुद्र, यक्षद्वीप यक्षोदसमुद्र, इस प्रकार से यावत् स्वयंभूरमणद्वीप और स्वयंभूरमणसमुद्र है / समुद्रों के उदकों का आस्वाद 186. (आ) लवणस्स णं भंते ! समुदस्स उदए केरिसए अस्साएणं पण्णते ? गोयमा ! लवणस्स उदए आइले, रइले, लिदे, लवणे, कडुए, * अपेज्जे बहूणं दुप्पय-चउप्पयमिग-पसु-पक्खि-सरिसवाणं णण्णत्थ तज्जोणियाणं सत्ताणं। कालोयस्स णं भंते ! समुदस्स उदए केरिसए अस्साएणं पण्णत्ते! गोयमा ! आसले पेसले कालए मासरासिवण्णाभे पगईए उदगरसेणं पण्णत्ते / पुक्खरोदस्स णं भंते ! समुदस्स उदए केरिसए पण्णत्ते ? गोयमा ! अच्छे, जच्चे, तणुए फालिहवण्णाभे पगईए उदगरसेणं पण्णत्ते। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org