________________ 54] [जीवाजीवाभिगमसूत्र 84 लाख पद्मांगों का एक पद्म, 84 लाख पनों का एक नलिनांग, 84 लाख नलिनांगों का एक अर्थनिकुरांग, 84 लाख अर्थनिकुरांगों का एक नलिन, 84 लाख नलिनों का एक अर्थनिकुर, 84 लाख अर्थनिकुरों का एक प्रयुतांग, 84 लाख अयुतांगों का एक अयुत, 84 लाख अयुतों का एक प्रयुतांग, 84 लाख प्रयुतांगों का एक प्रयुत, 84 लाख प्रयुतों का एक नयुतांग, 84 लाख नयुतांगों का एक नयुत, 84 लाख नयुतों का एक चूलिकांग, 84 लाख चूलिकांगों की एक चूलिका, 84 लाख चूलिकात्रों का एक शीर्षप्रहेलिकांग, 84 लाख शीर्षप्रहेलिकांगों की एक शीर्षप्रहेलिका / इस प्रकार समय से लगाकर शीर्षप्रहेलिकापर्यन्त काल ही गणित का विषय है। इससे आगे का काल उपमाओं से ज्ञेय होने से औपमिक है। पल्य की उपमा से ज्ञेय काल पल्योपम है और सागर की उपमा से ज्ञेय काल सागरोपम है / पल्योपम और सागरोपम का वर्णन पहले किया जा चुका है। दस कोडाकोडी पल्योपम का एक सागरोपम होता है / दस कोडाकोडी सागरोपम का एक अवसर्पिणी काल होता है। इतने ही समय का एक उत्सर्पिणी काल होता है। एक अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल अर्थात् बीस कोडाकोडी सागरोपम का एक कालचक्र होता है। उक्त कालचक्र का व्यवहार मनुष्यलोक में ही है / क्योंकि कालद्रव्य मनुष्यक्षेत्र में ही है।। वृत्तिकार ने अरिहंतादि पाठ के बाद विद्युत्काय उदार बलाहक आदि पाठ की व्याख्या की है और इसके बाद समयादि की व्याख्या की है। इससे प्रतीत होता है कि वृत्तिकार के सामने जो प्रति थी उसमें इसी क्रम से पाठ का होना संभक्ति है। किन्तु क्रम का भेद है अर्थ का भेद नहीं है। 179. अंतो गं भंते ! मणुस्सखेत्तस्स जे चंदिमसूरियगहगणनक्खत्ततारारूवा ते गं भंते ! देवा कि उड्डोववण्णगा कप्पोववण्णगा विमाणोववण्णगा चारोववण्णगा चारद्वितीया गतिरइया गइसमावण्णगा? गोयमा ! ते णं देवा जो उड्ढोषवण्णगा णो कप्पोववण्णगा विमाणोववण्णगा चारोववण्णग्गा नो चारदिईया गतिरतिया गतिसमावण्णगा उडमुहकलंबुयपुप्फसंठाणसंठिएहि जोयणसाहस्सीएहि तावखेहि साहस्सोयाहि बाहिरियाहिं वेउग्वियाहिं परिसाहिं महयाहयनट्टगीतवाइततंतोतालतुडियघणमुइंगपडुप्पवादिरवेणं दिव्वाई भोगभोगाइं भुजमाणा महया उक्किट्ठसोहणायबोलकलकलसद्देणं विउलाई भोगभोगाई भुजमाणा अच्छ य पन्धयरायं पयाहिणावत्तमंडलयार मेरु अणुपरियइंति / .. तेसि णं भंते ! देवाणं इंदे चवइ से कहमिदाणि पकरेंति ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org